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श्लोक-वार्तिक
तदेवं शोकादीनामसद्वेद्योदयापेक्षत्वाद्दुःखजातीयत्वेऽपि दुःखात्पृथग्वचनं मोहविशेषोदयापेक्षत्वात् तद्विशेषप्रतिपादनार्थत्वात् पर्यायार्थादेशाद्भेदोपपत्तेश्च नानर्थकमुत्प्रेक्षणीयं । तथैवाक्षेपसमाधानवचनात् वार्तिककारैर्दुः खजातीयत्वात्सर्वेषां पृथगवचनमिति चेन्न कतिपय विशेषसंबंधेन जात्याख्यानात् कथंचिदन्यत्वोपपत्तेश्चेति ।
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तिस कारण इस प्रकार यद्यपि संचित असद्वेदनीय कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाले होने से ये शोक, ताप, आदि सभी दुःख की ही विशेष जातियां हैं अतः सूत्र में दुःख का ग्रहण कर देने से ही सभी दुःख जातियों का संग्रह हो जाता है इन शोक आदिक का पृथक ग्रहण करना व्यर्थ पड़ता है तथापि विशेष - विशेष मोहनीय कर्म के उदय की अपेक्षा रखने से और उन दुःखों के कतिपय विशेष भेदों के प्रतिपादन स्वरूप प्रयोजन होने से तथा पर्यायार्थिक नय अनुसार निरूपण कर देने की अपेक्षा भेद बन गया होने से सूत्रकार ने शोक आदि का दुःख से पृथक प्ररूपण कर दिया है । अतः शोक आदि का उच्चारण व्यर्थ है यह बैठेठाले उत्प्रेक्षा नहीं कर लेनी चाहिये, राजवार्त्तिक ग्रन्थ को बनाने वाले श्री अकलंकदेव महाराज ने तिस ही प्रकार आक्षेप का समाधान किया है । राजवार्त्तिक ग्रन्थ की इस प्रकार वार्त्तिक है "दुःखजातीयत्वात् सर्वेषां पृथगवचनमिति चेन्न कतिपय विशेषसम्बन्धेन तज्जात्याख्यानात्” दुःखों की जाति के विशेष होने से सम्पूर्ण शोक आदिकों का पृथक निरूपण करना व्यर्थ है । श्री अकलंकदेव महाराज कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि दुःख की कितनी ही एक विशेष व्यक्तियों का सम्बन्ध करके उस दुःख जाति का सूत्र में सूचन कर दिया गया है जैसे कि “गौः" कह देने पर यदि कोई भोला पुरुष उन विशेष व्यक्तियों को नहीं समझता है तो उसको समझाने के लिये खण्ड गाय, मुण्ड गाय, धौली गाय आदि कह दिया जाता है । इसी सम्बन्ध में राजवार्त्तिककार की दूसरी वार्त्तिक यह है कि " कथंचिदन्यत्वोपपत्त ेश्च” सामान्य से विशेषों का कथंचित् अन्यपना बन रहा है जैसे कि रूपवान् द्रव्य या मूर्तद्रव्य की अपेक्षा मृत्तिका से घट, कपाल आदि विशेष अभिन्न हैं और नियत आकृति और नियत अर्थ - क्रिया, न्यारी संज्ञा, स्वलक्षण प्रयोजन आदि की अपेक्षा सामान्य मृत्तिका से घट, कपाल, आदि भिन्न हैं तिसी प्रकार सामान्य की अपेक्षा दुःख से आदि अभिन्न हैं तथा प्रतिनियत कारण, नियत विषय, विशेष प्रतिकूलतायें आदि की अपेक्षा साधारण दुःख से असाधारण शोक आदि भिन्न भी हैं अतः सूत्रकार करके शोक आदि का न्यारा प्रतिपादन करना समुचित है ।
दुःखादीनां कर्त्रादिसाधनभावः पर्यायिपर्याययोर्भेदोपपत्तेः । तयोरभेदे तावदात्मैव दुःखपरिणामात्मको दुःखयतोति दुःखं, भेदे तु दुःखयत्यनेनास्मिन्वा दुःखमिति, सन्मात्रकथने दुःखनं दुःखमिति ।
यह भी श्री अकलंक देव महाराज का वार्त्तिक है "दुःखादीनां कर्त्यादिसाधनभावः पर्यायपर्याययोर्भेदाभेदविवक्षोपपत्त ेः” दुःख, शोक, आदि शब्दों की कर्ता, कर्म, करण, अधिकरण और भाव सिद्धि करते हुये उनके वाच्य का सद्भाव जान लेना चाहिये क्योंकि पर्यायवान् और पर्याय के भेद और अभेद की विवक्षा बन रही है । जिस समय पर्यायवान् और पर्याय का अभेद मानना विवक्षित होगा तब तो दुःख परिणति स्वरूप हो रहा आत्मा ही दुःख है। कारण कि चुरादि गण की "दुःख तत्क्रियायां " ' धातु से कर्ता में अच प्रत्यय कर दुःख शब्द को बना लिया गया है। दुःखयति इति दुःखं