SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक-वार्तिक उपघात विचारा आसादन दूषण ही हुआ, आचार्य कहते हैं कि यह नहीं कह सकते हो क्योंकि ज्ञान गुण को प्रशस्त जानते हुये भी विनय प्रकाश, प्रशंसावचन आदि नहीं करना आसादन का लक्षण है और उपघात तो ज्ञान इसका “अज्ञान या कुज्ञान ही है" इस प्रकार सम्यग्ज्ञान के नाश कर देने का अभिप्राय रखना है। यों प्रदोष आदि के निर्दोष लक्षण हैं। तदिति ज्ञानदर्शनयोः प्रतिनिर्देशः सामर्थ्यादन्यस्याश्रुतेः । ज्ञानदर्शनावरणयोरास्रवास्तप्रदोषादयो ज्ञानदर्शनप्रदोषादय इत्यभिसंबंधात् । समासे गुणीभूतयोरपि. ज्ञानदर्शनयोरार्थेन न्यायेन प्रधानत्वात् तच्छब्देन परामर्शोपपत्तिः । _ सूत्र में पड़े हुये पूर्व परामर्शक तत् शब्द करके ज्ञान और दर्शन का स्मृति पूर्वक कथन हो जाता है । कण्ठोक्त विधेयदल में पड़े हुये "ज्ञानदर्शनावरणयोः" इस शब्द की सामर्थ्य से उद्देश्य दल के तत् शब्द द्वारा ज्ञान दर्शनों का प्रतिनिर्देश हो जाता है। पूर्व सूत्र में कहे गये निर्वर्तना आदि का नहीं। क्योंकि श्रौत और अनुमित में श्रौत विधि बलवान् है यहां अन्य किसो शब्द का प्रकरणोपयोगी श्रुतज्ञान के अनुकूल श्रवण नहीं हो रहा है। उनके प्रदोष आदि अर्थात्-ज्ञान और दर्शन के प्रदोष आदिक तो ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं। इस प्रकार पदों का उद्देश्य विधेय दलों अनुसार सम्बन्ध हो जाने से विना कहे सामर्थ्य करके तत् पद के निर्दिष्ट अर्थ ज्ञान और दर्शन समझ लिये जाते हैं। यद्यपि "ज्ञानदर्शनावरणयोः” इस समासघटित पद में ज्ञान और दर्शन गौण हो चुके हैं क्योंकि "ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने,ज्ञानदर्शनयोः आवरणे इति ज्ञानदर्शनावरणे" यों द्वन्द्व समास करते हुये पुनः तत्पुरुषसमास में उत्तर पदार्थ प्रधान हो जाता है और पूर्व पदार्थ गौण हो जाते हैं तथापि प्रकरण प्राप्त अर्थ सम्बन्धी न्याय करके ज्ञान और दर्शन की प्रधानता है । न्याय शास्त्र में शब्द सम्बन्धी न्याय करके तत्पुरुष समास के उत्तरपद की हो प्रधानता विवक्षित नहीं है अतः तत् शब्द करके ज्ञान और दर्शन का परामर्श होना बन जाता है जो ज्ञान या ज्ञानवान अथवा ज्ञान साधन का अवलम्ब लेकर प्रदोष आदि किये गये हैं वे ज्ञानावरण कर्मों के आगमन हेतु हैं और सामान्य सत्ता आलोचनस्वरूप दर्शन या दर्शनवाले जीव अथवा दर्शन के साधनों का अवलम्ब लेकर प्रदोष आदि किये जायेंगे वे दर्शनावरण कर्मों का आस्रव करावेंगे। ये प्रदोष आदि उपलक्षण हैं अन्य भी आचार्य, उपाध्याय, पाठक, गुरुओं के साथ शत्र भाव, अकाल में अध्ययन करना, अरुचि पूर्वक पढ़ना, पढ़ते हुये भी आलस्य करना, आदर नहीं रखते हुपे तत्त्वार्थ सुनना, अपने कुत्सित पक्ष को पकड़े रहना, सत्पक्ष को छोड़ देना, कपट से ज्ञानाभ्यास करना, पाण्डित्य कोरा अभिमान करना, आदिक भी ज्ञानावरण के आस्रव हैं इसी प्रकार देव या गुरु के दर्शन में मात्सर्य करना, किसी के दर्शन में अन्तराय डालना, आंखों को हानि पहुंचाना, दीर्घ निद्रा, आलस्य, सम्यग्दृष्टि को दूषण लगाना, आदि दर्शनावरण के आस्रव माने जाते हैं । सामान्यतः सर्वकर्मास्रवस्येंद्रियाव्रतादिरूपस्य वचनादिह भूयोऽपि तत्कथनं पुनरुक्तमेवेत्यारेकायामिदमुच्यते। यहाँ कोई आशंका उठाता है कि सामान्य रूप से सम्पूर्ण कर्म एकसौ बीसों के आस्रव इन्द्रिय, अव्रत, आदि स्वरूप का कथन पहिले ही "इन्द्रियकषाया" आदि सूत्र करके कर दिया है फिर भी इस सूत्र
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy