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________________ छठा अध्याय ४८५ उन ज्ञान और दर्शनों में किये गये प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन, और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव हैं । अर्थात् - अपने या दूसरों के ज्ञान और दर्शनों में अथवा ज्ञानवान्, दर्शनवान्, जीवों में एवं ज्ञान या दर्शन के कारणों में जो प्रदोष आदि किये जायेंगे उनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों का आस्रव होगा यानी ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों में अनुभाग रस अधिक पड़ेगा, दूषितआत्मा की पिशुनता ( चुगली करना ) परिणति तो प्रदोष है जैसे कि कोई पुरुष ज्ञानवान्, दर्शनवान् पुरुषों की या सज्जनों के ज्ञान दर्शन गुणों की प्रशंसा कर रहा है उसको सुनकर अन्य कोई खोटा पुरुष पिशुनता दोष अनुसार उन सद्गुणों की प्रशंसा नहीं करता है यह पिशुतापूर्ण बड़ा भारी दोष प्रदोष है। ज्ञान दर्शन अथवा इनके साधन पुस्तक, विद्यालय, चश्मा, अञ्जन आदि के विद्यमान होने पर भी "नहीं जानता हूँ नहीं हैं" इत्यादि कथन कर देना निह्नव है । देने योग्य भी अभ्यस्त विज्ञान को किसी निन्द्यकारणवश दूसरे को जो नहीं देना है वह मात्सर्य है । ज्ञान का व्यवच्छेद करना अन्तराय है । प्रशस्त ज्ञान का वचन, कार्यों करके विनय गुण कीर्तन प्रकाशन नहीं करना आसादन है । प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगा देना उपघात है । ये छः दोष यदि ज्ञान में होंगे तो ज्ञानावरण के और सत्तालोचन आत्मक दर्शन में होंगे तो दर्शनावरण कर्म का आस्रव कराने वाले समझे जायेंगे । आस्रवा इति संबंधः । के पुनः प्रदोषादयो ज्ञानदर्शनयोरित्युच्यते - कस्यचित्तत्कीर्तनानंतरमनभिव्याहरतोंऽतः पैशुन्यं प्रदोषः परातिसंधानतो व्यपलापो निह्नवः, यावद्याथावद्देयस्याप्रदानं मात्सर्यं विच्छेदकरणमंतरायः, वाक्कायाभ्यां ज्ञानवर्जनमासादानं, प्रशस्तस्यापि दूषणमुपघातः । न चासादनमेव स्याद्दषणं सतो विनयाद्यनुष्ठानलक्षणत्वात् । “आस्रवाः” इस शब्द का यहाँ " तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यांतरायासादनोपघाताः " के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये "सोपस्काराणि वाक्यानि" वाक्य अपने छः कारक या यथायोग्य न्यून कारकों के अर्थ प्रतिपत्ति कराने के लिये अश्रूयमाण, उपयोगी, शब्दों का यहां वहां से आकर्षण कर लेते हैं चाहे तो “स आस्रव:" इस सूत्र से भी आस्रक शब्द का मण्डूकप्लुति न्याय अनुसार सम्बन्ध किया जा सकता है। अतः उन ज्ञान और दर्शनों के विषय में हुये प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन, और उपघात ये ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्मों के आस्रव हैं यह इस सूत्र का अर्थ होजाता है । कोई जिज्ञासु पूँछता है कि वे ज्ञान और दर्शन में होने वाले प्रदोष आदि फिर कौन से हैं ? जो कि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आवक हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार यों समाधान कहते हैं । साक्षात् या परम्परया मोक्ष प्राप्ति के कारण होरहे उन ज्ञानों या दर्शनों का कीर्तन करने पर पश्चात् किसी एक असहिष्णु कषायवान्, पिशुनता की देव रखने वाले, जीवका अन्तरंग में पिशुनतास्वरूप परिणाम प्रदोष है । दूसरे के किसी छोटे से निमित्त का अभिप्राय कर ज्ञान का अपलाप ( होते हुये मुकर जाना) करना निह्नव है। जो कुछ भी जिस भी किसी प्रकार से देने योग्य ज्ञान या दर्शन का अच्छा दान नहीं करना मात्सर्य है । अर्थात् — स्वयं ज्ञान का अच्छा अभ्यास कर लिया है वह ज्ञान दूसरों को देने योग्य भी है कोई गोप्य या गर्हणीय नहीं है विनीत अभिलाषुक पात्र भी ज्ञानदान योग्य उपस्थित हैं ऐसी दशा में जो ज्ञान को नहीं दिया जाता है वह मात्सर्य ( ईर्षा डाह ) है । अपनी कलुषता से समीचोन ज्ञानों के विच्छेद का कर देना अन्तराय है । प्रशस्त ज्ञान का काय या वचन कर के वर्जन करना आसादन है । प्रशंसाप्राप्त भी ज्ञान को दूषण लगा देना उपघात है । यदि यहां कोई यों शंका उठावे कि ऐसा लक्षण करने पर तो
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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