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श्लोक- वार्तिक
स युक्तः सूत्रितश्चित्रः कर्मबंधानुरूपतः । तच्च कर्म नृणां तस्मादिति हेतुफलस्थितिः ॥ २ ॥
कषायों को मान कर हुये तीव्रपन, मंदपन, आदि विशेषों से प्रत्येक प्रत्येक उन आस्रवों का विशेष या साम्परायिक कर्मों का बंध विशेष हो रहा कह दिया गया है हाँ विशेष - विशेष वह कर्मबंध होना तो फिर इस सूत्र में विस्तार से सूचित किया गया है जो कि पूर्व उपार्जित कर्मबंध की अनुकूलता से चित्र विचित्र प्रकार का बंध हुआ युक्त ही है और भविष्य में भी जीवों के कर्मबंध अनुसार पुनः वे कर्म उपजेंगे और उन बँधे हुये कर्मों से पुनः जीवों को फल प्राप्त होगा यों द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म यह हेतु फल की व्यवस्था अनादि काल से चली आ रही है यदि मोक्षोपयोगी संवर और निर्जरा के कारण उपस्थित नहीं किये जायंगे तो यह धारा अनन्तानन्त काल तक इसी प्रकार चली जायगी । अतः उत्तर हो जाता है कि तीव्रत्व आदि के कारण कषायें इन्द्रियाँ आदि हैं और आस्रवों के विशेषों का विस्तार अनेक प्रकार की हेतुफल व्यवस्था का परिज्ञान कराने के लिये सूत्र में कह गया है । भावार्थ – नाना कषाय या द्रव्य, क्षेत्र, आदि परिस्थितियों अनुसार हुये तीव्रभाव, मंदभाव, आदि कारणों से कर्म के आस्रवों में अन्तर पड़ जाता है। किसी आत्मा में इन्द्रिय, कषाय, अत्रत, और क्रियाओं की तीव्रता हो जाती है। सिंह में क्रोध की तीव्रता है और हिरण के क्रोध मन्द है, प्रचण्ड गृहस्थ और प्रशान्त मुनि के भावों में अन्तर है । कोई आत्मा जान करके इन्द्रिय, कषाय, आदि में प्रवृत्ति करता है उसके महान् आस्रव होता है । उस समय मछलियों को नहीं भी मार रहे धीवर से भूमि को जोत रहा किसान अल्प पापी है। कचित् आकर्षक योग के भी अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ जाते हैं अज्ञात भाव
इन्द्र आदिकों की प्रवृत्ति होने पर अल्प आस्रव होता है विशेष अधिकरणों के होने पर भी आस्रव में विशेष हो जाता है जैसे कि परस्त्री गामी पुरुष के वेश्या का आलिंगन करने में अल्पास्रव है किन्तु राजपत्नी, गुरुपत्नी, या आर्यिका के आलिंगन करने पर महान् पाप आस्रव होता है। चोर किसी सेठ का द्रव्य चुराता है उसमें उतना दुष्कर्म आस्रव नहीं होता है जितना कि गुरुद्रोह, मित्रद्रोह करते हुये अपने परम हितैषी गुरु या मित्र का द्रव्य चुरा लेने पर महान् पाप आस्रव होता है । क्वचित् ज्ञात भाव की अपेक्षा एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय जीवों के अज्ञात भावों से पाप अधिक लग जाता है। इसी प्रकार बिशेष वीर्य होने पर वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले पुरुष के इन्द्रिय आदि का व्यापार होने पर महान् आस्रव होता है सातमे नरक तक जा सकता है किन्तु हीन संहनन वाले पुरुष द्वारा पाप कर्म किये जाने पर अल्प आस्रव होता है तीसरे नरक तक ही जा सकता है। इसी प्रकार, क्षेत्र, काल, आदि से भी आस्रव में विशेषता हो जाती है । घर में ब्रह्मचर्य का भंग करने पर अल्प आस्रव होता है किन्तु विद्यालय, स्वाध्यायशाला, देवस्थान, तीर्थमार्ग और तीर्थ स्थानों में व्यभिचार प्रवृत्ति करने पर उत्तरोत्तर महान् पाप का आस्रव होगा । इसी प्रकार प्रातः काल, मध्याह्न काल, स्वाध्याय काल, सामायिक काल में भी कर्मों के आस्रव का तारतम्य है उक्त कार्य कारण भाव की विशुद्धि, संक्लेशभावों अनुसार पुण्य, पाप, दोनों में व्यवस्था कर लेनी चाहिये तभी तो कर्मों के बंध की विचित्रता सध सकेगी, देवागम के “कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मवंधानुरूपतः । तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः” इस श्लोक की अष्टसहस्री में ग्रन्थकार ने कर्मसिद्धान्त का अच्छा विवेचन किया है।
जीवस्य भावास्रवो हि स्वपरिणाम एवेंद्रियकषायादिस्तीत्रत्वादिविशेषात् । प्रपंचतः पुनः