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________________ ४६२ श्लोक-वार्तिक ___ एक बात यह भी है कि इनका कार्यकारणभाव होने से भी इन्द्रिय आदिक से क्रियाओं का पृथक निरूपण करना सूत्रकार का युक्तिपूर्ण कार्य है । देखिये क्रियाओं के कारण इन्द्रिय, कषाय, आदिक परिणाम हैं। इनमें परस्पर अन्वय० यतिरेक घट रहा है। उन इन्द्रिय, कषाय, आदिकों के होने पर क्रियाओं का सद्भाव यानी उपजना होता है । इन्द्रिय आदिकों के नहीं होने पर क्रियाओं का सद्भाव नहीं है इस बात को अन्य प्रकरणों में भले प्रकार कहा जा चुका है यहाँ विस्तार करना व्यर्थ है। इन्द्रियग्रहणमेवास्त्विति चेन्न, तदभावेऽप्यप्रमत्तादीनामास्रवसद्भावात् । एकद्वित्रिचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियेषु यथासंभवं चक्षुरादींद्रियमनोविचाराभावेऽपि क्रोधादिहिंसादिपूर्वककर्मादानश्रवणात् । यहाँ कोई शंका करता है कि उक्त सूत्र में केवल इन्द्रियों का ग्रहण ही बना रहो कषाय, अव्रत, क्रियाओं, का ग्रहण करना व्यर्थ है पाँच इन्द्रिय परिणतियों से ही सभी आस्रव होजायेंगे। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि उन इन्द्रिय परिणतियों का अभाव होते हुये भी सातवें गुणस्थान वाले अप्रमत्त से आदि लेकर दशमे गुणस्थानतक संयमियों के आस्रव का सद्भाव पाया जाता है तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, जीवों में यथासम्भव चक्षु आदि इन्द्रियाँ और मानसिक विचारों के नहीं होते हुये भी क्रोध आदि कषायों और हिंसादि अविरति तथा अन्य मिथ्यात्वादि क्रियाओं को पूर्ववर्ती कारण मानकर कर्मों का ग्रहण होना शास्त्रों में सुना जाता है। एकेन्द्रिय जीव के रस चार इन्द्रियाँ और मन नहीं हैं, द्वीन्द्रिय जीव के घ्राण आदि तीन इन्द्रियाँ और अनिन्द्रिय मन नहीं पाया जाता है इसी प्रकार अन्य असंज्ञी पर्यन्त जीवों के भी इन्द्रियों की विकलता पायी जाती है जब द्रव्येन्द्रियाँ ही नहीं हैं तो भावेन्द्रियाँ कहाँ से होंगी यह व्यतिरेकव्यभिचार हुआ अतः सभी इन्द्रिय, कषाय, अव्रत, क्रियाओं का सूत्र में ग्रहण करना अनिवार्य है। कषायाणां सांपरायिकभावे पर्याप्तत्वादन्याग्रहणमिति चेन्न, सन्मात्रेपि कषाये भगवत्प्रशांतकषायस्य तत्प्रसंगात् । न च तस्येन्द्रियकषायाव्रतक्रियास्रवाः संति, योगास्रवस्यैव तत्र भावात् । चक्षुरादिरूपाद्यग्रहणं वीतरागत्वात् । यहाँ कोई आपेक्ष उठाता है कि सकषाय जीव के साम्परायिक आस्रव होता कहा गया है अतः साम्परायिक आस्रव के होने में केवल कषायें ही पर्याप्त हैं अन्य इन्द्रिय, अव्रत, और क्रियाओं का ग्रहण करना सूत्रकार को उचित नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि ग्यारहमें गुणस्थानमें कषायों की सत्तामात्र रहने पर भी अच्छी शान्त हो गयी हैं कषायें जिन की ऐसे भगवान् उपशान्तकषाय मुनि महाराज के उस साम्परायिक आस्रव के हो जाने का प्रसंग आजावेगा जो कि इष्ट नहीं है। वस्तुतः विचारा जाय तो उस ग्यारहमे गुणस्थान वाले मुनि के भाव इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियायें हैं ही नहीं। अतः इन्द्रिय आदिकों के अनुसार होने वाला साम्परायिक आस्रव उन उपशान्तकषाय भगवान के नहीं है हां केवल योग को ही कारण मान कर होने वाले ईर्यापथ आस्रव का ही वहां सद्भाव है यद्यपि ग्यारहमे, बारहमे, तेरहमे गुणस्थानों में चक्षुः, कर्ण, आदि इन्द्रियां हैं तथापि वीतराग होने के कारण चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा रूप आदि का ग्रहण करना स्वरूप उपयोग नहीं होता है रागी, द्वेषी, जीवों की ही इन्द्रियों द्वारा उपयोग स्वरूप परिणतियाँ होती हैं उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी अथवा ग्यारहमे, बारहमे, गुणस्थानों में धकाधक शुक्लध्यान प्रवर्त रहा है, शुद्ध आत्मा की परिणति में उपयोग निमग्न होरहा है
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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