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श्लोक-वार्तिक ___ यहाँ कोई वैशेषिक या नैयायिक हेतु में स्वरूपासिद्धि दोष लगाते हैं कि संसारी जीवों की परतंत्रता तो महेश्वर की सृजने की इच्छा की अपेक्षा रखनेवाली है अतः अन्य जीवों की अपेक्षा नहीं रखनापन यह हेतु का विशेषण पक्ष में नहीं रहा इस कारण असिद्ध दोष हुआ। भले ही इसको विशेषणासिद्ध दोष कह दिया जाय । व्यास जी ने कहा है कि "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वर प्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥” यह संसारी प्राणी अज्ञान है। अपने सुखदुःखों का स्वयं प्रभु नहीं है ईश्वर से प्रेरित होता हआ पराधीन होकर स्वर्ग या नरक को चला जाता है। गीताकार ने भी कह कि “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” कर्म ही करते जाओ उनका फल ईश्वर देगा यों ईश्वर की सिसृक्षा अनुसार सम्पूर्ण संसारी जीव पराधीन हो रहे हैं अतः जैनों का हेतु असिद्ध है । आचार्य कहते हैं कि यह वैशेषिकों को नहीं कहना चाहिये क्योंकि संसारी जीवों के महेश्वर या ईश्वर की सिसृक्षा के अपेक्षी होने का खण्डन कर दिया गया है। कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, सन्निवेशाविशिष्टत्व आदि सभी हेतु दूषित हैं । पूर्व प्रकरणों में कार्यों के निमित्त कारणपने से ईश्वर को नहीं सधने दिया है। आप्तपरीक्षा में भी कर्तृवाद का बहुत अच्छा निराकरण कर दिया है। वस्तुतः देखा जाय तो संसारी जोव अपने कषायभावों करके उपात्त किये गये कर्मों के उदय अनुसार पराधीन होरहे हैं। अनादि काल से धारा प्रवाह रूप करके कषायों से कर्मबन्ध और कर्मोदय से कषायें यों पराधीनता का अन्वय चला आ रहा है।
___नित्यशुद्धस्वभावत्वाञ्जीवस्य कर्मपारतंत्र्यमसिद्धमिति चेन्न, तस्य संसाराभावप्रसंगात् । प्रकृतेः संसार इति चेन्न, पुरुषकल्पनावैयर्थ्यप्रसंगात् तस्या एव मोक्षस्यापि घटनात् । न च प्रकतिरेव संसारमोक्षमागचेतनत्वाद्घटवत् । चेतनसंसर्गविवेकाभ्यां सा तद्भागेवेति चेत्, तर्हि यथाप्रकृतेश्चेतनसंसर्गात्पारतंत्र्यलक्षणः संसारस्तथा चेतनस्यापि प्रकृतिसंसर्गात् तत्पारतंत्र्यं सिद्धं, संसगस्य द्विष्ठत्वात् ।
यहाँ पक्ष की असिद्धि को दिखलाते हुये सांख्य विद्वान कहते हैं कि जीव सर्वदा शुद्धस्वभाव है । शुद्ध, उदासीन, भोक्ता, चेतयिता, द्रष्टा, ऐसा आत्मा हमारे यहाँ माना गया है अतः जीव का कर्मों करके परतंत्रपना सिद्ध नहीं है। इस कारण जैनों का हेतु आश्रयासिद्ध है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि नित्य ही शुद्ध मानने पर उस आत्मा के संसार के अभाव हो जाने का प्रसंग आवेगा जो कि दृष्ट और इष्ट प्रमाण से विरुद्ध पड़ता है। यदि कपिल मतानुयायी यों कहें कि संसार में आत्मा तो अन्य सभी पदार्थों से अलिप्त रहता है जैसे कि जल से कमलपत्र अलग रहता है यह जो कुछ जन्म, मरण, इष्ट वियोग, और अनिष्ट संयोग, भूख, प्यास, अध्ययन, दान, पूजा, शरीर ग्रहण आदि अवस्थास्वरूप संसार है यह सव सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणों की साम्य अवस्था स्वरूप प्रकृति का है आत्मा निर्विकार है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों प्रधान के ही संसार होना मान लेने पर आत्मा की कल्पना करने के व्यर्थपन का प्रसंग आ जावेगा । मोक्ष भी उस प्रकृति की ही घटित हो जायगी सभी पुरुषार्थों को जब प्रकृति सम्भाल लेगी तो आत्मतत्त्व की कल्पना करना व्यर्थ है । ऐसे अवसर को पाकर यदि सांख्य यों कह बैठे कि अच्छी बात है प्रकृति ही संसार और मोक्ष को धार लेगी हम आत्मा को संसारी या मुक्त मानते ही नहीं हैं। प्रकृति ही संसार करती है और प्रकृति ही आत्मा से चरितार्थाधिकार होकर मुक्त हो जाती है । मुक्त आत्मा में ज्ञान, सुख, आदि का अणुमात्र भी संसर्ग नहीं रहता है। केवल पुरुष का स्वरूप चैतन्य विद्यमान रहता है "चैतन्यं पुरुष