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________________ छठा-अध्याय ४४९ कमल के मध्य में प्राप्त हुआ चक्षुरिन्द्रियविषयलोलुपी भ्रमर अपनी लोभ कषायों के अनुसार परतंत्र हो रहा है ( अन्वयदृष्टान्त )। हां कषायों के उदय रूप से विशेषतथा निवृत्ति हो जाने पर तो परतंत्रता निवृत्त हो जाती है जैसे कि यहाँ जगत् में किसी एक जीव के कषायों की शान्त अवस्था के समय में परतंत्रता नहीं पायी जाती है ( व्यतिरेक दृष्टान्त )। यों अन्वय व्यतिरेक द्वारा जीवों की पराधीनता का कारण कषायों का उदय सिद्ध कर दिया है। संसारिणो जीवस्य पारतंत्र्यं विवादापन्नं कषायहेतुकं सत्त्वांतरानपेक्षित्वे सति पारतंत्र्यशब्दवाच्यत्वात् पद्ममध्यगभ्रमरस्य तत्पारतंत्र्यवत् । निःकषायस्य यतेर्दस्युकृतेन रक्षादिपरतंत्रत्वेन व्यभिचार इति चेन्न, सत्त्वांतरानपेक्षित्वेन विशेषणात् । वीतरागस्याघातिकर्मपारतंत्र्येणानेकांत इति चेन्न, तस्य पूर्वकषायकृतत्वात् । . संसारी जीव की विवाद में प्राप्त हो रही यह दृश्यमान परतंत्रता ( पक्ष ) स्वकीय कषायभावों को निमित्त पाकर उपज गई है ( साध्य ) अन्य जीवों की नहीं अपेक्षा रखते सन्ते परतंत्रता इस शब्द का वाच्य होने से ( हेतु) कमल के मध्य में प्राप्त हो रहे भौरे की उस कषाय हेतुक परतंत्रता के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । इस निर्दोष अनुमान से जीवों की परतंत्रता के अभ्यन्तर कारण का निरूपण कर दिया गया है। यदि यहां कोई व्यभिचार दोष उठावे कि कषाय रहित संयमी की चोर करके की गई ध्यान पालन, शरीर त्राण आदि की परतंत्रता करके व्यभिचार हो जायेगा। कोई अवसर पर ऐसा प्रकरण आ गया है जब चोर ने मुनि की रक्षा करने के अभिप्राय से मुनियों को रोक लिया था "प्राक्तज्जन्मर्षिवासावनशुभकरणाशकरः स्वर्गमग्र्यं” पूर्व भव में मुनि आवास दान के अभिप्राय और इस भव में रक्षण के अभिप्राय करके शकर ने सौधर्म स्वर्ग प्राप्त किया था यह दृष्टान्त तो.प्रसिद्ध ही है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वहां हेतु का अन्य प्राणियों की अपेक्षा नहीं रखते हुये यह विशेषण घटित नहीं हो पाता है । हमने उस परतंत्रता का अन्य सत्त्वों की नहीं अपेक्षा रखनेवालेपन करके विशेषण दे रखा है जो अन्य प्राणियों की अपेक्षा नहीं रखती हई परतंत्रता होगी वह अब कषायों से ही बनाई गई है। ग्रन्थकार श्रीविद्यानन्द स्वामीने आप्तपरीक्षा में भी शरीर आदि हीन स्थान का परिग्रह करना, क्रोधी, लोभी हो जाना, हँसना, रोना, मूर्खता, निर्बलता, मोह, आसक्ति, आदि पराधीनताओं का अन्तरंगकारण कषायों को बताया है। यदि पुनः कोई व्यभिचार दोष उठावे कि वीतराग हो रहे तेरहमे गुणस्थानवर्ती मुनि के अघाति कर्मों की परतंत्रता करके व्यभिचार आता है सयोग केवली परतंत्र तो हैं किन्तु उनके कषायों का उदय नहीं है । ग्यारहमे, बारहमे गुणस्थान वाले मुनि भी कषायो. दय के बिना ही अज्ञान, अदर्शन, के और अघातिया कर्मों के पराधीन हो रहे हैं। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वीतराग मुनियों की वह परतंत्रता भी पूर्व समयवर्ती कषायों करके की गई है । पहिली अवस्थाओं में हुई कषायों के अनुसार उन कर्मों में स्थिति और अनुभाग डाले थे । उन कर्मों का अब उदय आ रहा है अतः इस परतंत्रता में भी परम्परया कषाय कारण हैं अतः उक्त हेतु निर्दोष है । महेश्वरसिसृक्षापेक्षित्वात्संसारिजीवपारतंत्र्यस्य सत्त्वांतरानपेक्षित्वमसिद्धमिति चेन्न, महेश्वरापेक्षित्वस्य संसारिणामपाकृतत्वात् ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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