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________________ ४२८ श्लोक-वार्तिक रचना जीने के समान परमारणों के पैलों को उभारती हुई बनी है। ____ यही इस चित्र में पूर्व पश्चिम की ओर रचा गया है। यों धर्म, अधर्म द्रव्यों की पूर्व पश्चिम दिशा संबधी प्राक्रति भी परमाणु पंक्ति बरोवर सीढियों के निकाश को लिये हुये जीने के समान समझी जाय-या रुड़की नहर की सिढ़ियों की सी रचना ज्ञात कर ली जाय। मध्य लोक से पूर्व पश्चिम की अोर ब्रह्म लोक के निकट वर्ती प्रान्ततक ऊपर को उल्टा जीना वना लिया जाय और ब्रह्मलोक प्रणिधि से उपरिम लोक तक सीधा जीना रचा हा समझा जाय यों वहां जवलपुरके हनुमान ताल या वनारसके गंगा घाटोंकी पैडियों के समान प्रति प्रदेश पर एक एक परमाणु की ऊपर को घटतो हुई तिरछी पंक्तिबद्ध रचना है। यों अधोलोक में सात प्रदेशपर तीन प्रदेश घटाकर रचना समझ लेना। गहां की कालाणुए भी नोकीलो उभर रहीं प्रत्येक प्रदेश पर एक एक होकर रक्खी हुई हैं। ____ इसी प्रकार वहाँ के तनुवातवलय सम्बन्धी अन्तिम भागस्थ वातकायिक जीवोंके घनाङ्गल के असंख्यातवें भागस्वरूप असंख्यातासंख्यात प्रदेशी अवगाहना वाले गरीरों की प्राकृतियों में भी अवश्य जीना रच लिया जाय जैसे कि धर्म, अधर्म, द्रव्यों की व्यंजन पर्याय में परमाणु बरोबर प्रदेशों की हीनता या वृद्धि करते हये जीना बन गया है। वहां निगोदिया जोव या अन्य स्थावर काय के जीवों के शरीरोंकी आकृतियां भी इसी प्रकार की पैड़ियां बनी हुई समझी जांय । तथा जो कुछ भी वहां निर्जीव वायु या कार्माण वर्गणायें, महास्कंध, आदि पुद्गल भरा हुपा है या केवली समुद्घात करते हुये प्रात्मा के प्रदेश वहाँ पहुँचे हैं, पूर्व, पश्चिम-दिशा संबंधी लोक के अन्तभाग में पाये जारहे इन सभी पदार्थों को प्राकृति भी जीना वन रही नौकीली मानी जाय । क्योंकि धर्मास्तिकाय के उतना ही बड़े होने के कारण ये पदार्थ बाहर अलोकाकाश में पांव नहीं फैला सकते हैं । दृष्टान्त इतनाही पर्याप्त है कि टेढ़. बांके तिकोने, चौकोने नलों के भीतर भरे हुये अवयवी पानी की वैसी आकृति वन जाती है अथवा वहरहे करंट के धारी, पतले, मोटे, चौखूटे मुड़े गोल या चक्करदार, तारों में बिजली का संस्थान तदनुसार भरपूर बनता चला जाता है उनके बाहर नहीं । ३४३ घन राजू प्रमाण लोकाकाश के अनुसार धर्म, अधर्म, द्रव्यों की वैसी प्राकृति गढ़ लेने की अपेक्षा धर्म, अधर्म, द्रव्यों की तादृश सूरत अनुसार लोकाकाश की प्राकृति की कल्पना करना श्रेष्ठ है। क्योंकि छह द्रव्यों के समुदाय रूप लोक के आधार मान लिये गये लोकाकाश की अवधि कल्पित है। किन्तु धर्म. अधर्म द्रव्यों की वैसी व्यंजन पर्याय परमार्थ भूत है । जब कि लोकाकाश कोई वस्तुभूत द्रव्य नहीं है, तो उसकी व्यंजन पर्याय मानना भी कल्पना मात्र है । अतः धर्म, अधर्म की प्राकृति अनुसार लोक के प्राकार की कल्पना करनी चाहिये ।धर्म, अधर्म द्रव्य तो लोकके आधीन नहीं माने जांय क्योंकि धर्म, अधर्म वास्तविक द्रव्य हैं तव तो उनकी व्यंजन पर्याय भी ठोस परमार्थ
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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