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पंचम अध्याय
पर्याय एवं च द्वेधा सहक्रमविवर्त्तितः । शुद्धाशुद्धत्वभेदेन यथा द्रव्यं द्विधोदितं ॥ २ ॥ तेन नैव प्रसज्येत न विध्यवाधनं । संक्षेपतोन्यथा त्र्यादिनयसंख्या न वार्यते ॥ ३ ॥
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भी विषय कर लेती हैं न्यारे
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सिद्धान्त यह है कि सहभाव और क्रमभाव से विवर्त को प्राप्त होरहा पर्याय ही इस कारण दो प्रकार माना गया है, अत: उत्पाद, व्यय, शाली कम भावी पर्यायों के समान सहभावी गुण भी पर्यायों में ही परिगणित हैं ऐसी दशा में पर्यायार्थिक नयें ही गुणों को गुणार्थिक नय मानने की आवश्यकता नहीं है जिस प्रकार कि शुद्धान शुद्धपनके भेद करके द्रव्य दो प्रकार का कहा जा चुका है एक ही प्रकार की द्रव्यार्थिकनय करके शुद्ध द्रव्य और अशुद्ध द्रव्य दोनों विषयभूत होजाते हैं अतः यों द्रव्यार्थिकनय के दो भेद मानने की कोई आवश्यकता नहीं है उसी प्रकार पर्यायार्थिकनय से पर्यायों और गुणों दोनों के ग्रहण होजाने का प्रयोजन साध लिया जाता है पयः • श्रर्थात्-पानी या दूध दोनों को एक ही पात्र द्वारा पिया जा सकता है, तिस कारण जैन सिद्धान्त में संक्षेप से अभीष्ट किये गये नयों के द्रव्याथिक और पर्यार्याथिक यो द्विविधपन की वाधा का प्रसंग नहीं प्राप्त हो सकेगा अन्यथा यानी संक्षेप से नहीं कह कर विस्तार से कथन करना चाहोगे तव तो नयों के प्रकारों की तीन, चार, पांच, छ:, सात आदि संख्याति संख्याओं का भी निवारण नहीं किया जा सकता है । वस्तुनों में जितने भी अनन्तानन्त धर्म हैं उन सब का परिज्ञान कराने वाली अनन्ती नये हो सकती हैं यों श्रुतज्ञान के प्रांश स्वरूप नयों के विषयों का प्रतिपादन करना माना जाय तो जितने भी अर्थ वाचक शब्द हैं उतनी संख्यातीं नयें होसकती हैं अतः द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नयों से गुणार्थिक नय को भले ही वढ़ा लिया जाय हम जैनियों को कोई अनिष्टापत्ति नहीं हैं ।
संक्षेपतो हि द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति नयद्वयवचनं गुणवचनेन वाध्यते पर्यायस्यैव सहक्रम विवर्तनवाद्गुणपर्यायव्यपदेशात् द्रव्यस्य निरुपाधित्वसोपाधित्ववशेन शुद्धाशुद्धव्यपदेशवत् । प्रपंचस्तु यथा ।
उक्त वार्तिकों का विवरण यों है कि जिस कारण संक्षेप से द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक यों दो ही नयों का सिद्धान्त में निरूपण करना कोई गुणों का कथन करने पर वाधित नहीं होजाता है । अर्थात्द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो नयो को मानने वाले जैन सिद्धान्तियों ने यदि द्रव्य के लक्षण में पर्यायों ने साथ गुणों का भी निरूपण कर दिया है एतावता जैन सिद्धान्त में कोई वाधा नहीं आती है क्योंकि करना अथवा सहभावी अंशों और क्रमभावी श्रशों गुरण और पर्याय यह नाम निर्देश होजाता है, जैसे कि
aar के साथ विवर्त करना और क्रम से विवर्त की कल्पना इनकी अधीनता से पर्याय का हो