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________________ ४१८ श्लोक-वातिक तद्भावः परिणामोत्र पर्यायः प्रतिवर्णितः। गुणाच्च सहभुवो भिन्नः क्रमवान् द्रव्यलक्षणम् ॥ १॥ यहां " तद्भाव: परिणामः ,, इस सूत्र द्वारा पर्याय का प्रति विशेष रूप से वर्णन किया है तथा वह क्रम वाला पर्याय उस सहभावी गुण से भिन्न है। यों इन दोनों सूत्रों से गुण और पर्याय का लक्षण कर "गुणपर्ययवव्यं" इस द्रव्यके प्रतिपादक लक्षण सूत्र का वखान कर दिया गया है । अर्थात् सहभावी गुण से क्रमभावी परिणाम निराले हैं प्रत : गुणों और पर्यायों दोनोंसे सहित होरहे पदार्थ को द्रव्य कहना समुचित है। पूर्वस्वभावपरित्यागाज्जहद्धत्तोत्पादो द्रव्यस्योत्तराकारः परिणामः स एव पर्यायः क्रमवान् द्रव्यलक्षणं । न वासी गुण एव प्रतिवर्णितस्तस्य सहभावित्वात्कथंचिद्भिन्नत्वेन व्यवस्थानात् । पूर्व स्वभावों का परित्याग करते हुये द्रव्य का कालान्तर स्थायी स्वभाव की अन्वित वृत्तिता का परित्याग नहीं करना स्वरूप अनहद्धत्ति के रहते हुये उत्पाद होरहा सन्ता जो उत्तर वर्ती आकार का परिग्रह है वही परिणाम है वही पर्याय क्रमवान् होरहा सन्ता द्रव्यका लक्षण है। किन्तु वह पर्याय तो गुण नहीं कहा गया है कारण कि उस गुण को सहभावीपना होने के कारण पर्यायों से कथंचित् भिन्नपने करके व्यवस्थित किया गया है । अर्थात्-'पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितलक्षणः परिणामः" और "अन्वयिनः वा सहभाविनः गुणाः" यों भिन्न भिन्न लक्षणों अनुसार पर्याय और गुणों की व्यवस्था होरही है कथंचित् भेद, अभेद, होने के कारण परिणाम के शरीर में गुणों का ध्रौव्यपना अन्वित होरहा है और गुणों के उदर में पर्यायों का विकारशालित्व ओत प्रोत प्रविष्ट है फिर भी "लक्खणदो हवदि तस्सणाणन्तं" मानना ही पड़ता है। नन्वेवं नयद्वयविरोधस्तृतीयस्य गुणार्थिकनयस्य सिद्धरित्यारेकायामाह । यहाँ किसो का प्रश्न उठता है कि इस प्रकार सिद्धान्त में माने गये द्रव्याथिक और पर्यायाथिक यों दो नयों के स्वीकार किये जाने का विराध पाता है क्योंकि तीसरे गुणार्थिक नय की आपके कहने से सिद्धि हो जाती है । अर्थात्- जस नय का प्रयोजन द्रव्य को जान लेना है वह द्रव्याथिक नय है और पर्यायों को ज्ञान कर लेना जिसका अर्थ है वह पर्यायाथिक है जव जैनों ने द्रव्य के प्राधेय हो रहे पर्यायों को जान लेने के लिये स्वतंत्रतया पर्यायार्थिक नय का निरुपण किया है तो साथ ही द्रव्योंमें वर्तरहे गुणों को विषय करने वालो तोसरो गुणाविक नय का भो पृथक निरूपण करना चाहिये गुणों के जान लेने को प्रयोजन सिद्धि भी सव को अभिप्रेत है इस प्रकार दीर्घ आशंका प्रवर्तने पर श्री विद्यानन्दी आचार्य अग्रिम वात्तिकों को पाहते हैं ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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