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पंचम-अध्याय
में या मानुषोत्तर पर्वत के ऊपर कोई विजली का करन्ट नहीं भर दिया है। तथा यहां प्रकरण में तो कोई खटका भी नहीं है।
जब कि लोक, अलोक, दोनों ही एक अखण्ड आकाश द्रव्य है लोकाकाश को जब कालाणुयें वर्ता रही हैं तो सम्पूर्ण प्राकाश उनके द्वारा वर्तेगा वीणा के तार में एक स्थल पर आघात होने से सम्पूर्ण तार झनकार करता है केवल धर्म, अधर्म, द्रव्यों की व्यंजन पर्यायों अनुसार " सत्तेक्कपंच इक्का मूले मज्भेतहेव वम्भते , लोयंते रज्जूये पृवावर होइ विस्यारो" " दक्खिण उत्तर दो पुण सत्तवि रज्जू हवेइ सव्वत्थ " यों उस अखण्ड आकाश में ही लोकाकाश की कल्पना कर ली गयी है उतने ही प्राकाश में प्रत्येक प्रदेशपर एक एक वर्तरहीं असंख्याती कालाणुयें भरी हुई हैं " लोकादहिरभावेऽस्यालोकाकाशस्य वर्तनं " यो पाट अच्छा दीखता है लोक से वाहर कालाणु का अभाव होने पर भी इस प्रलोकाकाश का वर्त जाना तो उस आकाश के अखण्ड एक द्रव्यपन की सिद्धि होजाने से उन्हीं कालाणुओं द्वारा किया जाकर युक्तिपूर्ण उपपादन किया जा चुका समझ लिया जाय।
न ह्यलोकाकाशं द्रव्यांतग्माकाशस्यैकद्रव्यत्वात्तस्य लोकस्यांतर्वहिश्च वर्तमानस्य वर्तनं लोकवर्तिना कालेनोयपादितं युक्तं, न पुनः कालानपेक्षं सकलपदार्थवर्तनस्यापि कालानपेक्षन्वप्रसंगात् न चैतदभ्युपगंतु शक्यं, कालास्तित्वसाधितत्वात् ।
प्रलोकाकाश कोई निराला स्वतंत्र द्रव्य नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण आकाश एक ही द्रव्य है लोक के भीतर और वाहर सर्वत्र विद्यमान होरहे उस अखण्ड अाकाश की वर्तना करना तो लोकाकाश में वर्त रहे कालद्रव्य करके हुआ समचित उपपादन प्राप्त होजाता है अलोकाकाश की वर्तना फिरकाल द्रव्य की नहीं अपेक्षा कर नही होसकती है अन्यथा सभी जीव प्रादि पदार्थो की वर्तना होजाने को भी काल की नहीं अपेक्षा रखते हये हीसम्भव जाने का प्रसंग पाजावेगा किन्तु यह स्वीकार नहीं कर सकते हो कारण कि आखिलपदार्थों की वर्तना रूप उपकार करने के हेतु होरहे काल का अस्तित्व साधा जा चुका है “ वर्तनाःपरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य" इस सूत्र के ऐदंपर्य को समझा दिया गया है।
ननु च जीवादीनि षडेव द्रव्याणि गुणपर्यायवत्वान्यथानुपपत्तेरित्ययुक्तं गुणानामपि द्रव्यत्वप्रसंगातेषां गुणपर्ययवत्वप्रतीते रित्यारेकायापिदमाह ।
- यहां कोई तर्क शाली पण्डित प्रश्न उठाते हैं कि गुणों और पर्यायों से सहितपना अन्यथा यानी द्रव्यपन के विना नहीं बन सकता है इस अविनाभावी हेतु से आप जैनों ने जो जीव, पुद्गल, पाटि छह ही द्रव्योंको अभीष्ट किया है यह आपका कहना तो अनुचित है क्योंकि यों तो इस हेतु अनसार चेतना, रूप, आदि गुणों को भी द्रव्यपन का प्रसंग पाजावेगा समवाय सम्बन्ध से नहीं सही एक समवाय नामक सम्बन्ध से उन गुणों को भी गुणों से सहितपना प्रतीत होरहा है और पर्यायें तो