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________________ पंचम - अध्याय भिधियते समयस्य व्यवहारकालत्वादावलिकादिवत् । भाव का अर्थ पर्याय है उस पर्याय करके अनन्त समयोंवाला कालद्रव्य कहा जाता है क्योंकि जीव श्रादि अनन्त पदार्थों के पर्यायों की वर्तना का हेतु वह काल द्रव्य है, जब कि एक एक कालागु भी लोकाकाश में प्रबर्त रहे प्रनन्त पर्यायों की वर्तनाओं को करा देती है, एक द्रव्य अपनी प्रपनी भिन्न भिन्न शक्ति से प्रत्येक क्षण में युगपत् श्रनेक कार्यको कर सकता है अन्यथा यानी विभिन्न शक्तियों के विना वह अनेक कार्यों का सम्पादन नहीं कर सकता है, 'यावन्ति कार्याणितावन्ति स्वभावान्तराणि तथा परिणामात्' प्रष्टसहस्री में इस सिद्धान्त को अच्छा पुष्ट किया है, वात यह है कि कारण में शक्तिभेद माने विना उस एक कारण से अनेक कार्यों का उत्पाद होना असम्भव है, जैसे कि मंत्र से संस्कृत की गयी अग्नि एक पुरुष को जला देती है, और वही ग्राग दूसरे पुरुष को नहीं भुरसाती है, सुशील जीव के लिये सर्प माला होजाता है, जव कि कुशीलपुरुष के लिये वही भयंकर सर्प है, न जाने किस पापी जीव को निमित्त पाकर मार्ग में कांटे कंकड़ फैल जाते हैं और किसी जीव के पुण्य अनुसार वे कांटे कंकड़ तितरवितर होजाते हैं एक मेघ जल से अनेक प्रकार के कार्य होजाते हैं यहां भी जल में अनेक कार्यों को उपजाने वाली अनेक शक्तियां माननी पड़ेंगी खेत की मिट्टी अनेक वनस्पतियों स्वरूप परिणम जाति है, उसकी अन्तरंग में कादृश शक्तियों के विना सभी कार्य रूक जाते हैं जैसे की वीज वो देने पर भी ऊपर की मिट्टी या जल गयी मट्टी अनेक वनस्पतियों को उत्पन्न नहीं करपाती है, इसी प्रकार घाम, वायु उजिरिया आदि में अनेक कार्यों की प्रयोजक होरही नाना शक्तियां माननी पड़ती हैं । ४११ यद्यपि काला द्रव्य परिशुद्ध है उसमें विभाव परिशतियां नही होती हैं तथापि कालाखु की पर्याय में अनेक स्वभावों का उत्पाद, व्यय होते रहना मानना पड़ता है जो ही कालागु किसी जीव को मोक्षमार्ग में लग जाने की वर्तना करा रही है वही अन्य जीव को नरक मार्ग में प्रवर्ताने की उदासीन कारण होजाती है इस ही कारण वन्दनीय नहीं है नीलांजना के नृत्य में हजारों प्रेक्षक मनुष्यों के हृदय में शृंगार रस को उपजाने की शक्ति हैं तो साथ ही वीतराग विज्ञानो भगवान् ऋष.. भदेव के अन्तःकरण में वैराग्यभाव उपजाने की शक्ति भी परिवर्तनात्मक नृत्य में मानी जाती है शक्ति के विना कार्य को कौन करे ? यो अनेक दृष्टान्तों से एक कालाणु में अनन्तशक्तियां सिद्ध कर दी जाती हैं तिसकारण अनन्तशक्ति वाला होरहा सन्ता वह कालागुद्रव्य ही व्यवहार से अनन्त समयों वाला कह दिया जाता है, कारण कि प्रावलि, दिन, वर्ष आदि के समान समय भी व्यवहार काल है, अतः समय का प्रसिद्ध अर्थ एकक्षण करने से अनन्त क्षणों वाला कालागु द्रव्य नही होसकता था किन्तु यहां 'कालश्च' इस निश्चय काल द्रव्य के प्रतिपादक सूत्र के लगे हाथ पीछे 'सो ऽनंतसमय:' सूत्र कहा गया है, अतः निश्चय काल में अनन्त समय सहितपना तभी अच्छा जचता है, जव कि समय का अर्थ शक्तियां कर लिया जाय अनन्त शक्ति वाले काल द्रव्य को व्यवहार से अनन्त समय वाला कहा जा सकता है ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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