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________________ श्लोक-वालिक धर्मात्मक द्रव्य में गुणों की अपेक्षा सहानेकान्त सध रहा है, मौर क्रम-भावी अनेक पर्यायों की अपेक्षा क्रमानेकांत बन रहा है, क्रम और युगपत्पने करके अर्थ - क्रिया को करने वाली वस्तु का सत् पना क्षुण्ण रहता है, यों प्रमागा नय अनुसार सह सप्तभंगियों और क्रम सप्तभंगियों के विषयभूत धर्मों को धार रहा द्रव्य है । ३६८ यदि इस सूत्र में केवल "गुरणवद्रव्यं" कह दिया जाता तो जैनों के यहां पर्यायों के क्रम अनेकान्त की मान्यता ठहरती और पर्यायवद्रव्यं" इतना ही कह देने पर स्याद्वादियों के यहां सहअनेकान्त उड़ा दिया गया माना जा सकता था किन्तु जैन दोनों को मानते हैं, ग्रतः सह, क्रम, दोनों अनेकान्तों की व्युत्पत्ति कराने के लिये उदात्ताशय सूत्रकार ने “गुरणपर्यायवद्रव्यं" कहा है। नास्त्येकत्र वस्तुनीहानेको धर्मः सर्वभावानां परस्परपरिहारस्थितिलचणत्वादेकेन धर्मेण सर्वात्मना व्याप्तेः धर्मिणि धर्मान्तरस्य तद्व्याप्तिविरोधादन्यथा सर्वधर्म संकर प्रसंगादिति सहानेकांत निराकरणवादिनः प्रति गुणवद्रव्यमित्युक्तं । सकृदनेकध पधिकरणस्य वस्तुनः प्रतीयमानत्वात कुठे रूपादिवत् स्वपरपक्षसाधकत्वेतरधर्माधिक' कहेतुवत् । पितापुत्रादिव्यपदेशविषयाने कधर्माधिकरण पुरुषवद्वा । वस्तु में साथ अनेक धर्मों का निराकरण करने वाले पण्डित यों कह रहे हैं कि यहां एक वस्तु में एक साथ अनेक धर्म नहीं ठहर पाते हैं क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ परस्पर एक दूसरे का परिहार करते हुये ठहरना इस लक्षण को श्रात्मसात् किये हुये हैं एक धर्मका दूसरे धर्म के साथ या एक धर्मी का दूसरे धर्मी के साथ परस्पर परिहार स्थिति नाम का विरोध है । जैसेकि रूप और ज्ञानका अथवा गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्वका विरोध है वैयधिकरण्य दोष से बचने के लिये प्रत्येक धर्मका निराला अधिकरण होना आवश्यक जब कि एक हो धर्म ने सम्पूर्ण स्वरूप करके धर्मी को व्याप्त कर लिया हैं ऐसी दशा होजाने पर उस धर्मी में अन्य धर्म की वैसी सर्वात्मना व्याप्ति होजाने का विरोध है अन्यथा यानी एक धर्मी में सर्वांग रूप से अनेक धर्मों का सद्भाव यदि मान लिया जायगा तब तो सम्पूर्ण धर्मों के संकर होजाने का प्रसंग श्राजावेगा । ज्ञान, रूप, गतिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, श्रवगाहहेतुत्व ये सभी गुण परिपूर्ण स्वरूपसे एक द्रव्य में बन बैठेंगे जहां एक गुरण भरपूर धर्मीमें ठहर चुका है । वहां दूसरे धर्मके लिये स्थान अणुमात्र भी रीता नहीं बचा है इस प्रकार साथ अनेक धर्म नहीं ठहर सकते है यों सह अनेकान्त के निराकरण को कह रहे वादी पण्डित जो मान बैठे हैं उनके प्रति सूत्रकार महाराज ने " गुणवद्द्रव्यं "यों सूत्रदल कहा है क्योंकि एक समय में एक ही वार साथ अनेक धर्मों का अधिकरण होरही वस्तु की प्रतीति की जा रही है जैसे कि वृक्ष या घड़े में रूप, रस, गंध, आदि गुण साथ ठहर रहे हैं । अथवा स्वकीय पक्ष का साधकपन और परकीयपक्ष का प्रसाधकपन इन दो धर्मों का अधिकरण हो रहे एक समीचान हेतु के समान वस्तु श्रनेक धर्मों का अधिकरण है । लाप्तमीमांसा में " असाधारण हेतुवत् " और " कारकज्ञापकांगवत् " स्वभेदैः साधनं यथा "
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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