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श्लोक - बार्तिक
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श्रतः सम्पूर्ण नौऊ द्रव्यों में व्यापक रूप से क्रियावत्व लक्षण नहीं घटित हुआ वैशेषिकों ने आद्यक्षगावच्छिन्न घट श्रादि कार्य द्रव्यों को निर्गुण, निष्क्रिय, स्वीकार किया है, अतः गुरणवत्व लक्षण भी श्रव्याप्ति दोष वाला है ।
समवायिकारणत्वमपि न द्रव्यलक्षणं युक्तं, गुणकर्मणोरपि द्रव्यत्वप्रसंगात्तयेोगु - गत्वकर्मत्वसमवायिकारणत्वसिद्धेः । तयोस्तत्समवायित्वमेव तत्कारणत्वं गुणत्वकर्मस्वसामान्ययोरकार्यत्वादिति चेन्न, सदृशपरिणामलक्षणस्य सामान्यस्य कथंचिन्कार्यत्वसाधनात् कथंचित्तदनित्यत्वमपि नानिष्टं प्रत्यभिज्ञानस्य सर्वथा नित्येष्वसंभवादित्युक्तप्रायं ।
द्रव्य का लक्षण समवायिकारणपना भी उचित नहीं है, कारण कि यों तो गुण और कर्मों को भी द्रव्यपने का प्रसंग आाजावेगा क्योंकि उन गुण और कर्म को भी गुणत्व और कर्मत्व जाति के समवायिकारण होजाने की सिद्धि गुण में समवाय सम्बन्ध से गुणत्व जाति रहती है, और कर्म में कर्मव जाति समवेत होरही है, उन गुण कर्मों को उन गुणत्व कर्मत्व का समवायसहितपना ही उन गुणत्व कर्मत्वों की कारणता है, जैन सिद्धान्त अनुसार गुरण के सदृश परिणाम होरहे गुरणत्व और कर्म के सदृश परिणाम होरहे कर्मत्व भी गुण या कर्म के समान अनित्य ही हैं, उनको समवाय सम्बन्ध से घर लेने वाला ही उनका समवायि कारण है ।
यदि वैशेषिक यों कहें कि चौवीसों गुणों में रहने वाली गुणत्व जाति और पांचों कर्मों में व्याप रहा कर्मत्व सामान्य तो नित्य पदार्थ हैं, ये किसी के कार्य नहीं हैं, अतः इनके समवायि कारण गुण या कर्म नहीं हो सकते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योंकि “सदृशपरिणामस्तियंक्खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् " सामान्य (जाति) सदृश परिणाम स्वरूप है, ऐसे सदृश परिणामस्वरूप सामान्य को कथंचित् कार्यपना साध दिया गया है, अतः उन गुणत्व, कर्मत्व, सामान्यों का कथंचित् नित्यपना भी अनिष्ट नहीं है । हां सामान्य को कथंचित् नित्य भी कह दिया जाय तो कोई प्रापांत नहीं, कारण कि यह वही गाय है. यह वही रूप है, यह वही रस, है, यह वही नृत्य है, इत्यादि प्रत्यभिज्ञानों का होना सर्वथा नित्य पदार्थों असम्भव है, इस बात को हम पूर्व प्रकरणों में कई वार कह चुके हैं।
में
गुणत्रवे सति क्रियावत्वं समवायिकारणत्वं च द्रव्यलचणमित्यप्ययुक्त, गुखावद्द्द्रव्यमित्युक्ते लच्चणस्याव्याप्त्यतिव्याप्त्योरभावात् । तद्वचनानर्थक्यात् ।
गुणवान् होते सन्ते क्रियासहितपना और समवायिकारणपना यह मिला कर द्रव्य का लक्षण किया गया भी युक्तिरहित है, क्योंकि “गुणवाला द्रव्य होता है" इस प्रकार ही कह चुकने पर अकेले गुणवत्व लक्षरण के ही अव्याप्ति और प्रतिव्यप्ति दोषों का प्रभाव है, फिर उन क्रियासहितपन और समवायिकारण इन वचनोंका पुञ्छछल्ला लगाना व्यर्थ पड़ता है, "लक्षणं हि तन्नाम यतो न लघीयः
"