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________________ पचम- श्रध्याय #EX व्यवहारनय से सत् के पर्याय हो रहे धर्म, अधर्म, श्रादि के द्रव्यपन की प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार महाराज ' गुणपर्ययवद्रव्यं" इस सूत्र को स्पष्ट कह रहे हैं । श्रर्थात् सम्पूर्ण पदार्थों को एक सत् रूप से ग्रहण कर रहा संग्रहनय है, “शकल्पनं पर्यायः" अशों की कल्पना करना यह पर्यायों का सिद्धान्त लक्षण है, "संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः " संग्रहनय से आक्षेपग्रस्त किये गये पदार्थों का व्यवहारोपयोगी भेद करना व्यवहार है, तदनुसार धर्म, अधर्म आदि द्रव्य भी सत्के पर्याय होजाते हैं, पहिले "उत्पादव्ययधीव्ययुक्तं सत्" इस लक्षण से सत् के पर्याय होरहे धर्म यादि का द्रव्यपना प्रतीत नहीं होता है. हां इस 'गुणपर्यायवद्द्रव्यं" से धर्म आदि का द्रव्यपना समीचीन प्रतीत हो जाता है, भलें ही धर्म श्रादिक सब द्रव्य उस व्यापक सत् के पर्याय हैं, फिर भी स्वकीय नियत गुणों और पर्यायों से भरपूर हैं ।. सतो हि महाद्रव्यस्य पर्यायो धर्मास्तिकायादिर्व्यवहारनयार्पणायां द्रव्यत्वमपि स्वीकरोत्येव, तस्य चासाधारणलक्षणं गुणपर्यायवत्वमिति प्रतिपत्तव्यं, न पुनः क्रियावत्त्वं तस्याव्यापकत्वान्निष्क्रियेष्वाकाशादिष्वभावात् । जब कि अनेक द्रव्यों का समुदाय होरहा सत् महान् द्रव्य है, उस सत् के अंश कपना स्वरूप पर्यायें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आदि व्यक्ति रूप से अनेक द्रव्यें हैं । धर्मास्तिकाय, यादि छःऊ. द्रव्य व्यवहार अनुसार अर्पण करने पर द्रव्यपन को भी स्वीकार कर हो लेती हैं, उस द्रव्य का असाधारण लक्षण गुणपर्यायवत्व है, यह भले प्रकार समझ लेना चाहिये । ग्रर्थात् - "सत्तासव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंत पज्जाया । भंगोप्पादघुवत्था सप्पडिवक्खा हवदि एगा" इस महासत्ता के स्वरूप अनुसार "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्" यह महाद्रव्य होरहे सत् का लक्षण है, और " गुणपर्ययवदद्रव्यं ' यह महाद्रव्य सत् के पर्याय माने जा रहे धर्मास्तिकाय प्रादि का असाधारण लक्षण समझ लिया 99 जाय । किन्तु फिर वैशेषिक दर्शन अनुसार “क्रियागुणवत्समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणं" युक्त नहीं है, वैशेषिक दर्शन के प्रथम अध्याय - सम्बन्धी पहिले यान्हिक के पन्द्रहमे उक्त सूत्र का अर्थ यह है, कि जो क्रियावान्, है, और जो गुणवान् है, तथा जो समवायि कारण है, वह द्रव्य है । इस प्रकार or का लक्षण वैशेषिकों ने किया है, किन्तु ये तीनों लक्षरण निर्दोष नहीं हैं, क्योंकि उस क्रियासहितपने लक्षण में श्रव्याप्तिदोष श्राता है, जब कि क्रियारहित माने गये आकाश आदि चार व्यापक द्रव्यों में क्रिया का प्रभाब है । वैशेषिकों ने प्रकाश, काल, दिक्, आत्मा, इन चार द्रव्यों को व्यापक मान कर क्रियारहित स्वीकार किया है, पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन इन पांच द्रव्यों में ही क्रिया स्वीकार की गयी है, “क्षितिर्जलं तथा तेज: पवन मन एव च । परापरत्वमूर्तत्व क्रिया या प्रेमी" (कारिकावली) ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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