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पंचम - श्रध्याय
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कोई जिज्ञासु पूछता है कि इस " गुणसाम्ये सदृशानां " सूत्र को किस प्रयोजन को सिद्धि:, के लिये श्री उमास्वामी महाराज ने कहा था ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार ( हम ही तो ) इस अगली वार्तिक को कहते हैं ।
अजघन्यगुणानां तत्प्रसक्तावविशेषतः ।
गुणसाम्ये समानानां न बंध इति चात्रवीत् ॥ १ ॥
पूर्व सूत्र द्वारा जघन्य गुणों से रहित होरहे परमाणुत्रों का विशेषता रहित होकर उस बंध होने का प्रसंग प्राप्त होजाने की अवस्था उपस्थित होजाने पर श्री उमास्वामी महाराज " गुणसाम्ये सदृशानां " गुणों की समानता होने पर सदृशपरमाणुओंों का बंध नहीं होता है यों इस सूत्र को कहते भये । अर्थात् - कभी कभी छोटे पदार्थ का निषेध करते हुये उससे बड़े पदार्थ का विधान स्वतः प्राप्त होजाता है । अतः उस अनिष्ट का निषेध करने के लिये पुनः कण्ठोक्त दूसरा निषेध करना पड़ता है जैसे कि तुच्छफल के भक्षण का निषेध कर देने पर स्वार्थी पुरुष महाफल का भक्षण करना विहित समझ लेते है, अतः महाफल के भक्षरण का भी कण्ठोक्त निषेध करना पड़ता है। रात्रि में जल नहीं पीना चाहिये इसका प्रर्थं रात्रि में अन्न दूध, फल, खा लिया जाय और पानी पिये कुल्ला किये बिना " ही सो जाय, यह नहीं है । तथा सूक्ष्म चोरी का निषेध छठे गुरणस्थान में है एतावता कोई विरत मुनि स्थूल चोरी नहीं कर सकता है। अतः परमाणुओं के गुण-साम्य अवस्था में बंध का निषेध करना सूत्रकार महाराज का स्तुत्य प्रयत्न है ।
केषां पुनर्वधः स्यादित्याह ।
अगले सूत्र के लिये अवतरण यों है, कि यों तो बंधके एक विधायक और दो निषेधक सूत्रों करके विषम भाग वाले तुल्य जातीय अथवा अतुल्य जातीय पुद्गलों का किसी भी नियम के बिना बंध जाने का प्रसंग प्राप्त हुआ । दस स्निग्ध गुण वाले परमाणु का बीस गुण स्निग्ध वाले पुद्गल के साथ या चालोस गुण रूक्ष वाले के साथ भी बंध हो जावेगा, जा कि इष्ट नहीं है, अतः बतायो फिर कैसे किन परमाणुत्रों का बंध होसकेगा ? इस प्रतिपित्सा का समाधान करते हुये सूत्रकार अग्रिम सूत्र को प्रव्यक्त कहते हैं ।
दूधिकादिगुणानां तु ॥ ३७ ॥
तुल्य जाति वाले या अतुल्य जाति वाले जो पुद्गल परस्पर में स्निग्ध या रूक्ष पर्यायों में दो अधिक प्रविभाग प्रतिच्छेदों को धारते हैं, उनका तो बन्ध होजाता है अर्थात् तु शब्द करके 'न जघन्यगुणानां, सूत्र से चले जा रहे प्रतिषेव को व्यावृत्ति कर दो जाता है, और 'ग्विज्ञत्वाब'घः' सूत्र से
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