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________________ ૭૬ - वार्तिकं गुणों का परम प्रकर्षसिद्ध होजाता है, सूक्ष्मनिगोदिया के ज्ञान में भी एक नहीं किन्तु अनन्तानन् श्रविभागप्रतिच्छेद हैं, वे ज्ञान के जघन्य गुरण हैं, इसी प्रकार पुद्गलों में भी स्निग्ध रूक्ष परिमाणों के कतिपय जिन दृष्ट सख्याते या असंख्याते गुण रह जाते हैं, वे जघन्य गुण हैं, ऐसे जघन्यगुरण वाले पुद् गलों का बंध होना निषेधा गया है। राजवात्र्तिक या श्लोकवार्त्तिक में यद्यपि जघस्य का अर्थ एक किया गया है, 'एकगुणस्निग्ध-स्य एकगुरणस्निधेन वा एकगुरणस्य स्निग्ध रूक्षस्य वा परेण स्निग्धेन रूक्षेण चैकगुणेन' आदि लिखा गया है । छः वृद्धियों और छः हानियों अथवा चतुः स्थान- पतित हानि वृद्धियों के भी अनुसार प्रविभागप्रतिच्छेदों की एक संख्या का शेष रह जाना जंचता नहीं है, जघन्य ज्ञान में सब से प्रथम उपरला अनन्त भाग वृद्धि का स्थान कह रहा है, कि जघन्य ज्ञान भी किसी अपेक्षा एक है, तभी तो उस पवयवी के भाग मान कर अनन्तवां भाग बढ़ाया गया है। उसी प्रकार परमाणु के अनेक जघन्य गुरणों को सब से पहिली अवस्था मान कर एक गुण का व्यवहार कर दिया जाता है, विद्वान जन और भी इस पर प्रकाश डालेंगे, गम्भीर विचार करेंगे । ननु न कदाचिदबंध: परमाणुनां सर्वदा स्कधात्मतयैव पुद्गलानामवस्थितेः । बुद्धया परमाणुकल्पनोपपत्तेर विभागपरिच्छेदवदिति कश्चित्त ं प्रत्याह । यहाँ कोई पण्डित स्वपक्ष का श्रवधारण करता हुम्रा पूर्वपक्ष उठाता है, कि सूत्रकार ने जो जघन्य गुण वाले परमाणुओं का प्रबंध कहा है, यानी वैसे जघन्य गुणी परमाणुओं का बध नहीं होता है, सो हमको ठीक नहीं जंचा है, क्योंकि परमाणुत्रों का कदाचित् भी अबध नहीं होता है, यानी परमा सदा बंधे ही रहते हैं, स्कन्ध स्वरूप-पने करके ही पुद्गलों की सर्वदा अवस्थिति पाई जाती है, जगत् में किसी को न्यारा न्यारा परमाणु नहीं दीख रहा है, हम प्रादि सब को सर्वत्र पिण्ड ही पिण्ड दीखते हैं, हां बुद्धि करके परमाणुओंों की कल्पना करना भले ही बन जाय जैसे कि प्रविभागप्रतिच्छेद कल्पित माने जा रहे हैं । अर्थात् जैनों ने उतने ही लम्बे चौड़े बोझ वाले जैसे नील, नीलतर, नीलतम पदार्थों में रूप के अन्तस्थल को समझाने के लिये, सौ, पांचसौ, पांच सहस्र, संख्यात, आदि श्रंशों की कल्पना कर ली है, वस्तुतः श्रविभागप्रतिच्छेद कोई न्यारे न्यारे वस्तुभूत टुकड़े नहीं हैं, जैसे कि वस्त्र में न्यारे न्यारे सूत श्रातान वितान अवस्था अनुसार प्रतिभास रहे हैं, लंगड़ा या मालदा श्राम को मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते हुये कुछ दिन तक रक्खे रहने देन से उनमें मिष्टता के प्रदेश बढ़ जाते हैं, इस क्रिया के अवसर पर ग्राम में कहीं बाहर से ग्राकर मिश्री या वक्खर नहीं मिल जाता है, श्रथवा मर्यादा से अधिक दिन तक रखे रहने देने से जो मिष्टता कम होजाती है, तब कोई उसमें से रस या वक्खर चू करके टपक नहीं पड़ता है, केवल अन्तरंग वहिरंग कारणों अनुसार उपज रहीं ग्राम की पूर्वपर
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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