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पंचम-अध्याय
शंकररातः कणिकानामपकृष्टः प्रतीयते ततोपि पाशनामिति । स्निग्धरूवगुणः कचिदत्यंतमपकपमेति प्रकृष्यमाणापकर्षत्वादा नमसः परिमाणे परिमाणवदित्यनुमानाज्जघन्यगुणसिद्धिः। एतेनोत्कृष्टगुणसिद्धिाख्याता, प्रकृर्षातिशयदर्शनात्काचित्परमप्रकर्षसिद्धेः।
यहां कोई प्रश्न उठाता है, कि जगत् में जघन्य गुण वाले कितने ही एक परमाणुयें हैं, इसका निश्चय किस प्रमाण से किया जाय ? बतायो । अब प्राचार्य महार"ज उत्तर करते हैं, कि स्निग्ध गुणों और रूक्ष गुणों के अपकर्ष यानी हीनता होते चले जाने का अतिशय देखा जा रहा है, जिसके अपकष का तारतम्य देखा जाता है, क्वचित् उसफा अतिशय होजाने से चरम अवस्था पर परम अपकर्ष को सिद्धि होजातो है, जैसे कि आकाश. धर्मद्रव्य स्वयम्भूरमणसमुद्र, सुमेरुपर्वत, घट, बेर, पोस्त, प्रादि में परिमाण की घटी होते होते परमाणु पर पहुंच कर सब से छोटा अणुपरिमारण विश्राम कर लेता है। उसी प्रकार स्निग्धता और रुक्षता के अविभागी अंशों में न्यूनता होते होते अन्तिम जघन्य गुणों की सिद्धि होजाती है, जिससे पुन: न्यूनता होने की सम्भावना नहीं है।
देखिये जब कि ऊटिनी के दूध से भैंस के दूधका चिकनापन गुण हीनता को लिये हुये प्रतोत होता है, और तिस भैंस के दूध से गाय के दूध का चिकना गुण अपकृष्ट है, उस गाय के दूध से भी बकरी के दूध का चिकनापन अल्प है, उस बकरी के दूध से भी जल का चिकनापन न्युन हैं, यों तारतम्य होते होते क्वचित् स्नेह गुण को अन्तिम जघन्य अवस्था प्राप्त होजाती है, उस अवस्था में बंध होना असम्भव है।
जिस प्रकार स्नेह गुण का प्रपकर्ष बढ़ता बढ़ता दिखा दिया है, तिसी प्रकार रूक्ष गुण का अपकर्ष प्रतीत होरहा है, देखिये कंकड़ियों या मारिणक-रेती के रूखेपन से कणिकाओं यानी कनियों का रूखापन प्राकृष्ट दीखता है, और उन कनकियों के रूखेपन से भी धूलियों का रूखापन न्यून है,वालु रेतसे मिट्टीका रेत कमती रूखा है । इस प्रकार स्निग्धगुण या रूक्षगुण (पक्ष) कहीं न कहीं अत्यन्त अपकर्ष को प्राप्त होजाते हैं, ( साध्य ) प्रकष को प्राप्त होता जारहा अपकर्ष होने से ( हेतु ) प्रकाश के परिमाण से प्रारम्भ कर जैसे परिमाण में न्यूनता होते होते परमाणु मे परिमाण का अपकर्ष अन्तिम विश्रान्त होजाता है, ( दृष्टान्त ) । इस अनुमान से पुद्गलों के जघन्य गुणों की सिद्धि होजाती है, इस उक्त कथन करके युद्गलों के स्नेह या लक्ष सम्बन्धी उत्कृष्ट मुणों की सिद्धि का भी व्याख्यान किया
जा चुका है।
प्रकर्ष यानी वृद्धि का अतिशय बढ़ता बढ़ता दोखता रहने से कहीं जाकर परम प्रकर्ष की सिद्धि होजाती है, जैसे कि परमाणु यशुक बः, पट, पर्वल आदि म परिमाण बढ़त बढ़त आकाश में विश्रान्ति लेता है, अयवा सूक्ष्म निगोदिया के अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेः वाले जघन्यज्ञान की दि होते रहते सन्ते पनन्तानमा स्पबों पर तारतम्य अनुसार वृद्धि होते होते केवल-ज्ञान में शान के