________________
पंचम-अध्याय
३६७
से पुद्गलों का बंध होजाता माना गया है ।
यहां कोई आक्षेप करता है कि रूखापन नामका कोई गुण नही है, चिकनेपन गुण के प्रभाव होजाने पर रूक्षता का व्यवहार सिद्ध होरहा है जहाँ चिकनापन नहीं है उसको रूखा कहदिया करते हैं, अतः दुग्ध, घृत, चिकने सुन्दर वस्त्र भूषण, आदि भव्य जड़ पदार्थों में ( यहां तक कि स्नेही इष्ट बन्धुजन आदि चेतन पदार्थों में भी) क्लुप्त स्नेह गुणको भावात्मक अनुजीवी गुण मान लिया जाय और रूक्ष गुण को रीता प्रभाव मान लिया जाय,रूखापन, नीरसपन, अनुष्णशीत, निर्गन्ध आदि का व्यर्थ बोझ वस्तु के ऊपर क्यों लादा जाता है ?
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि यों तो Fक्ष के अभाव में स्नेह के व्यवहार होजाने का भी प्रसंग आसकता है,वास्तविक रूक्षता के नहीं होने से रबड़ी,मलाई, तैल आदिमें चिकनेपन की कल्पना है, ऐसी दशामें चालिनी न्याय से स्नेह गुणका भी अभाव होजाना बन जाता है। इसी प्रकार शीत का अभाव होजाने पर उष्णपन के व्यवहार का प्रसंग पाजाने से उष्ण गुण के अभाव का भी प्रसंग होजावेगा । पण्डिताईको मूर्खता का अभाव कहा जा सकता है, अधार्मिकपन की व्यावृत्ति ही धार्मिकता है, हलकेपन का अभाव ही बोझ है, सुगंध का अभाव ही दुर्गन्धपन है, निबल का प्रभाव ही सबल है, इत्यादि आक्षेप करने वाले का मुख पकड़ा नहीं जाता है तब तो किसी भी पदार्थ की सिद्धि करना अन्यापोहवादियों के यहां असम्भव है । जोड़े होरहे पदार्थों में से अन्य दूसरे दूसरे पदार्थों का यदि प्रभाव मान लिया जायेगा तो जगत् के आधे पदार्थों का निराकरण हुँप्रा जाता है, प्रायः सभी पदार्थ अपने प्रतिपक्ष को ले रहे सप्रतिपक्ष हैं।
यदि आक्षेपकर्ता यों कहे कि स्पर्शन इन्द्रिय-जन्य ज्ञान में शीत गुणके समान अग्नि, घाम आदि के उष्णका भी समीचीन प्रतिभास होरहा है अतः वास्तविक उष्णगुण एक भावात्मक स्पर्श विशेष है, जैसे कि वैशेषिकों के यहां अनुष्णाशीत स्पर्श या पाकज और उससे निराला अपाकज स्पर्श माना गया है। वैशेषिकों ने स्पर्श के उष्ण, शीत, और अनुष्णाशीत ये तीन भेद किये हैं। जल में शीत स्पर्श है तेजो द्रव्य में उष्ण स्पर्श है, पृथिवी और वायु में अनुष्णाशीत स्पर्श माना गया है " एतेषां पाकजत्वं तु क्षितौ नान्यत्र कुचित् " पकी ईट, घड़ा, आदि पृथिवी में अग्नि-संयोग करके हुये पाक से जायमान पाकज स्पर्श है किसी पृथिवी में अपाकज स्पर्श भी है।
यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो स्नेह का ग्रहण करने वाली स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा उपजे हुये ज्ञान में हलकापन, भारीपन, इन विशेष स्पर्शोंके समान रूक्ष का भी स्पष्ट प्रतिभास होजाता है, अतः स्वतंत्र भावात्मक रूक्ष गुण क्यों नहीं होवेगा ? अर्थात्-स्नेह का सहोदर भाई रूक्ष गुण अवश्य हैं । जो ही स्पर्शन इन्द्रिय स्नेह को जानती है वही खेपन का प्रत्यक्ष कर रही है। प्रभाव कह देने मात्र से अर्थक्रिया को करने वाले परिणाम का निराकरण नहीं होजाता है। वैशेषिकों ने पत्धकार को तेजोऽभाव मान रखा है किन्तु यह निर्वाध सिद्धान्त नहीं है जबकि काला काला अधिकार