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श्लोक - वार्तिक
न हि गुणभूतं सत्यमुत्पादव्ययधौव्ययुक्तमुपपद्यते तस्य कल्पितत्वात् नांजसा, द्रव्यस्य लक्षणं वस्तुभूतस्यैव सच्चस्य त्पादादियुक्तन्वोपपत्तेः भेदज्ञानादुत्पादव्ययसिद्धिवदभेद ज्ञानाद्ध्रौव्यसिद्धेरप्रतिबंधत्वात ।
गौणरूप से कल्पित होगया सत्व या सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण में गुण होकर पड़ा हुआ सत्व तो नियम करके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों से युक्त नहीं बन सकता है, क्योंकि वह कलित है, झूठ मूठ कल्पना कर लिये गये पदार्थ में वास्तविक पदार्थ के उत्पाद, व्यय, ध्रोव्य नहीं पाये जाते हैं, 'न हि कल्पितो गौर्वाहदोहादावुपयुज्यते' तमारा या चकाचौंध दोष से रीते आकाश में दीख रहे तमः पिण्ड या तेज पिंड सारिखे पदार्थों की उत्पत्ति बिनाश, नौर स्थिरता नहीं प्रतीत हारही है। इस प्रकार गुण (गौण ) भूत सत्ता द्रव्य का निर्दोष लक्षण नहीं है, वास्तविक होरहे सत्व को ही उत्पाद, व्यय आदि स सहितपना युक्तिपूर्ण माना जाता है, पूर्वात्तर अवस्थामा में भेद को ग्रहण करने वाले ज्ञान से जैसे उत्पाद और व्यय को सिद्धि होजाता है, उसा प्रकार द्रव्य का पूर्वापर अवस्थानों में प्रभेद का ज्ञान करने से ध्रुवपन की सिद्धि होजाने का कोई प्रतिबन्ध नहीं है, अर्थात् वस्तु भेदाभेदात्मक है, भेद को अपेक्षा से उत्पाद, व्यय, इन दा को स्थवस्था है, और प्रभेद की अपेक्षा ध्रुवपना निर्णीत है । ननु च भ्राव्ययुक्त सद्द्द्रव्यस्य लक्षण उत्पादव्यययुक्त ं सत् पयोवस्य लक्षणमिति व्यक्त वक्तव्यमात्रेधात् । नव वक्तव्य, सत. एकत्वादेका संतति वचनात्तदेवैकं द्रव्यमनतपर्यायमित्युच्यते न पुर्द्विविधा द्रव्यतत्ता पयायसत्ता चेति । ततोन्यस्य महा सामान्यस्यै - कस्य तद्व्यापिना द्रव्यस्य प्रसंगात् । तदा यद्यद्रूपं तदा न द्रव्य खर पावत् सद्रूपं चेत्, सैवैका सन्तति [सद्ध सल्लक्षण द्रव्यमेव पर्यायस्य पयायांत (रूपेण सद्रूपत्वप्रतीतेः ।
यहां किसो पंडित का अनुनय है, कि जब वस्तु बेवारी द्रव्य पर्याय - आत्मक मानी गई है, तो ध्रौव्य-युक्त सत् का तो द्रव्य का लक्षण कह दिया जाय तथा उत्पाद और व्यय से युक्त होरहे सत् को पर्याय का लक्षण मान लिया जाय ता इस प्रकार जैन सिद्धान्त में काई विरोध आता नहीं दोखने से सूत्रकार द्वारा व्यक्त कह देना चाहिये । अर्थात्- 'स्पष्टवक्ता न वचकः, यह नीति अच्छी है, वि जन भले ही 'वक्रोक्तिः काव्य-जीवितं ' स्वीकार करें किन्तु दार्शनिकों को वक्र कथन शोभा नहीं देता है । अब प्राचार्य कहते हैं, कि इस प्रकार नहीं कहना चाहिये कारण कि सत्ता या सत् एक हो है, 'सत्ता एक है, ऐसा जैन सिद्धान्त ग्रन्थों में कहा गया है, 'एका हि महासत्ता' 'सत्ता सम्ब-पयत्था सविस्सरूवा अणंत-पज्जाया । भगाप्पादवत्या सप्पविक्खा हवदि एगा ।" ऐसे सर्वज्ञ ग्राम्नायसे चले आरहे शास्त्रों के बचन हैं । वह एक ही सत् द्रव्य है, जा कि अनन्त पायों वाला है, यो कह दिया जाता है, किन्तु सत्ता फिर द्रव्य सत्ता और पर्याय -सत्ता यों दो प्रकार की नहीं है, यदि सत्तायें दो मानी जांगी तो एक महासत्ता को मानने वाले जैनों के यहां फिर उन द्रव्य और पर्यायों का द्रव्यसत्ता, पर्याय सत्ता, इन दोनों में व्यापने वाले उनसे न्यारे एक महासामान्य द्रव्य को स्वीकार करनेका प्रसंग भावेना ।
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