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________________ पंचम-श्रध्यायं विघट जाना रूप व्यय तथा अनादि कालीन पारिणामिक स्वभाव करके स्थिर बने रहना स्वरूप श्रीव्यसे युक्त यानी समाहित होरहा सत् है । अर्थात् - सत् वस्तु का प्रारण अर्थ - क्रियाकारित्व है, उत्पाद व्यय, start करके अर्थ क्रिया होजाती है । भावान्तर की प्राप्ति होना और पूर्व भाव का विगम होने तथा दीर्घं कालसेन्वित चले आ रहे स्वकीय पारिणामिक भाव करके ध्रुवपना ये सत् स्वरूप हैं । वादियों का प्रतिभात स्वरूप सत् या वैयाकरणों का मात्र अस्तित्व रूप सत् श्रथवा वैशेषिकों की नित्य और द्रव्य, गुरण, कर्मों में समवेत होरही सत्ता यहां सत् नहीं पकड़ी गई है " हां सत्वं प्रर्थक्रिपया व्याप्तं " अर्थ क्रिया च क्रमयौगपद्याभ्यां व्याप्ता, क्रमयौगपद्ये तु उत्पादव्ययत्रौव्यैर्व्याप्त" यह प्रक्रिया अच्छी है । स्वजात्यपरित्यागेन भावांतरावाप्तिरुत्पादः तथा पूर्वभाव विगमो व्ययः, ध्रुवेः स्थैर्यकर्मणोध वतीति ध्रुवस्तस्य भा: कर्म वा धौव्यं तैर्युक्त ं सदिति बोद्धव्यम् । G अपनी सदृश परिणामरूप जोवत्व, पुद्गलत्व, आदि जातियों का परित्याग नहीं करके चेतन श्रथवा अचेतन द्रव्य के परिणामान्तरों की प्राप्ति होजाना उत्पाद है, और तिसी प्रकार यानी स्वजाति का अपरित्याग करके पूर्ववर्त्ती भावों का विनश जाना व्यय है । "ध्र ुव गतिस्थैर्ययोः” इस तुदादिगण की धातु या "ध्रुव स्थैर्ये" इस स्वादि गरणको स्थिर क्रिया को कहने वाली "ध्रुवति" इस धातु से अच् प्रत्यय करने पर ध्रुव शब्द बनता है, उस ध्रुव का भाव अथवा कम धौव्य है, यों तद्धित में ष्यञ् प्रत्यय कर ध्रौव्य शब्द साधु वना लिया जाता है । उन उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों करके युक्त होरहा सत् है । इस प्रकार सूत्र का अर्थ समझ लेना चाहिये । बात यह है, कि सत् को उत्पाद व्ययों करके युक्त कह देने से सर्वथा नित्य-वादका खण्डन होजाता है और सत्को धौव्ययुक्त कह देने से क्षणिकवाद का निराकरण कर दिया जाता है, तीनों से समाहित होरहा सत् परमार्थ वस्तु है, भेद पक्ष अनुसार "युजिर् योगे" धातु से औौर अभेद पक्ष अनुसार "युंज समाधी" धातु से युक्त शब्द साधु बना लिया जाय । तत्रोत्पादव्ययत्रोव्ययुक्तं सदिति सूचनात् । गुणसत्वं भवेन्नैव द्रव्यलक्षणमंजसा ॥ १ ॥ द्रव्यलक्षरण के उस प्रकरण में, उत्पाद, व्यय, धौव्य इनसे युक्त होरहा सत् है, श्री उमास्वामी महाराज करके सूत्रद्वारा सूचना कर देने से गौण सत्ता तो द्रव्य का लक्षण निर्दोष नहीं हो सकेगा । श्रर्थात् जिसमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य यानी अन्वित स्वरूप को प्रक्षुण्ण बनाये रखती हुई षट् स्थानपतित हानि वृद्धियां होती रहती हैं, वह वास्तविक सत् तो द्रव्य है । बौद्धों के यहाँ कल्पित किया गया सत्व या वैशेषिकों की सत्ता जाति प्रथवा श्रद्वतवादियों का चित् स्वरूप सत्व तो द्रव्य के लक्षण नहीं होसकते हैं । सूत्र के उद्देश्यदल में एवकार लगा देनेसे श्रन्य गौणसत्ता या कल्पित सत्ता अथवा कापिलों के सत्वगुण की व्यावृत्ति होजाती है, अतः वस्तुभूत सत्व हो द्रव्य का लक्षण है ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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