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पंचम अध्याय
विक्रेता को स्वकीय विकल्पना स्वरूप पूरा मूल्य देकर अपना प्रत्यक्ष कराना मानागया है, तिस कारण अवयवी का चाक्षुषपना सूत्रोक्त अनुसार प्रतीतिम्रों से सिद्ध होजाता है ।
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भेद संघातों से चाक्षुष होय इतना ही नहीं सूत्रकार को अभिप्रेत है, प्रत्युत चाक्षुषवना यह पद स्पार्शन, रासनपन, आदि का भी भले प्रकार उपलक्षण कर लेता है, कोई बाधक प्रमाण नहीं हैं । भावार्थ - " तद्भिन्नत्वे सति तत्सदृशत्वमुपलक्षणं" प्रचाक्षुष भी अत्रयवी इन भेद और संघात से चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होजाता है, उक्त सूत्र का इतना ही अभिप्रा नहीं लिया जाय किन्तु पहिले अस्पार्शन, अरासन, आदि हो रहे पदार्थ भी भेद और संघात से पुनः सार्शन, रासन आदि होजाते हैं, ऐसा उक्त सूत्र का उदार अभिप्रेतार्थ है ।
किं पुनर्द्रव्यस्य लक्षणमित्याह ।
जीव आदि छः ऊ द्रव्यों का विशेष लक्षण तो उन स्थलों पर सूत्रकार महाराज ने कह दिया है, किन्तु साधारण रूप से द्रव्य का लक्षण अभी नहीं कहा जा चुका है, अतः यह कहना चाहिये कि द्रव्य लक्षण फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर श्री उमास्वामी महाराज इस अगले सूत्र को कहते हैं ।
सद्द्द्रव्यलक्षणम् ॥ २६ ॥
I
द्रव्य या द्रव्यों का लक्षण सत् है । अर्थात् जो विद्यमान रह चुका है, विद्यमान है, विद्यमान रहेगा वह सत् पदार्थ द्रव्य है, जो सत् नहीं है, वह द्रव्य नहीं है, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, बौद्ध, आदि के यहां तत्व या द्रव्य का लक्षण ठीक ठीक नहीं बन सका है, जोकि प्रव्याप्ति, प्रतिव्याप्ति श्रसम्भव दोषों करके रहित होय वैशेषिकोंद्वारा द्रव्यत्व के योग से द्रव्य समझा जाता है, इत्यादि लक्षणों का विचार किया जा चुका है। परमार्थ रूप से देखा जाय तो यह द्रव्य का सूत्रोक्त लक्षण सर्वत्र, सर्वदा, निर्दोष है । जैसे कि अर्थ क्रिया- कारित्व वस्तु का लक्षण है, "स्वपरात्मोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वं" इसी प्रकार द्रव्य या तत्व भी सत् लक्षण वाला है, पंचाध्यायीकार पण्डित राजमल्ल जी द्वारा "तत्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्र' वा यतः स्वतः सिद्धं । तस्मादनादिनिधनं स्व-सहायं निर्विकल्पं च" इस पद्य करके तत्व के सन् लक्षण को पुष्ट किया गया है, क्यों न हो जब कि महान् पूज्य श्री कुन्दकुन्द आचार्य महाराज ने सत्ता को ही द्रव्य का आत्मा निर्धारित किया है, अनन्तानन्त गुणों के पिण्ड हो रहे द्रव्य में अस्तित्व का प्रभाव श्रोत पोत छा रहा है, द्रव्य से अस्तित्व अभिन्न है, अतः द्रव्य का सत्पना श्रात्मभूत लक्षण है ।
अथ विशेषतः सद्द्द्रव्यस्य लक्षणं मामान्यतो वा १ यदि विशेषतस्तदा पर्यायाणां द्रव्यत्वप्रसंगादतिव्याप्तिर्नाम लक्षणदोषः, अव्याप्तिश्च त्रिकालानुयायिनि द्रव्ये सद्विशेषाभावात् वर्तमान द्रव्य एव तद्भावात् । यदि पुनः सामान्यतस्तद्द्रव्यस्य लक्षणं शुद्धमेव द्रव्यं स्यादिति सैवाव्याप्तिरशुद्धद्रव्ये तदभावदिति वदतं प्रत्युच्यते ।