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________________ રૂદ્ श्लोक-वातिक कोई पदार्थ नहीं है, वह स्कन्ध अपने प्रत्यक्ष ज्ञान में अपनी आत्मा का समर्पण नहीं करता है, और अपना प्रत्यक्ष होजाना चाहता है, विषय का अपना प्रत्यक्ष कराने में ज्ञान के लिये अपना आकार अर्पण कर देना ही मूल्य दे देना है, ज्ञान में पदार्थों का प्रतिविम्ब पड़ जाना स्वरूप प्राकार को मानते हुये साकार ज्ञान-वादी बौद्धजन ज्ञान के लिये अपने आकार का समर्पण करदेना ही विषय करके मूल्य दे देने की उत्प्रेक्षा कर लेते हैं । हां जैन विद्वान् विषय भूत अर्थों की ज्ञान द्वारा विकल्पना होजाना ही आकार मानकर ज्ञान को साकार इष्ट करते हैं, ज्ञान में ग्रंथों का प्रतिविम्ब नहीं पड़ता है । सत्य बात यह है कि बौद्धों के यहां मानी गयी सूक्ष्म प्रसाधारण, क्षणिक, परमाणु, स्वलक्षणों का ही किसी को कदाचित् प्रतिभास होता है, ये परणयें ही प्रत्यक्ष बुद्धि में अपने स्वरूप का समर्पण नहीं करती हुई अपना प्रत्यक्ष होजाना मांगती हैं, अतः बौद्धों की कल्पित परमाणुयें अमूल्यदान क्रयी हैं, अवयवी तो अपने अर्थविकल्प स्वरूप आकार को प्रत्यक्ष में समर्पण कर अपना प्रत्यक्ष करना चाहता है, अतः अमूल्यदानत्रयी नहीं है, अपने से भिन्न पदार्थों का पृथग्भाव कर बुद्धि में शुद्ध प्रमेय के निज स्वरूप की विकल्पना होजाना ऐसा मूल्य देकर सौदा लेना जैनों को अभीष्ट है । भने श्राश्रय द्रव्यके सहित होरहे ही रूप, रस, आदिक विषय बुद्धिके लिये अपना मूल्य देकर प्रत्यक्ष होना चाहते हैं, द्रव्य रहित अकेला रूप या रस- रहित कोरा द्रव्य चोर है, डांकू है, गंठकटा है, उठाईगीरा है, श्रतः न्यायशालिनी बुद्धि केवल गुरण या केवल गुरणी का प्रत्यक्ष नहीं कराती है, यह बौद्धों को स्पष्ट कहना पड़ेगा अब वे द्रव्य-रहित कोरे रूप या रस को नहीं स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि मतिज्ञान में द्रव्य से सहित हो रहे रूप आदिकों का ही परिज्ञान हो रहा है "वर्णादय एब न स्कन्धाः " अथवा "अवयवा एव न श्रवयवी " ये मन्तव्य समाचीन नहीं है । एतेन श्रुतज्ञानेष्यप्रतिभासमानाः श्रुतज्ञानपरिच्छेद्यत्वं स्वीकतु मिच्छतस्त एवामून्यदानक्रयिणः प्रतिपादितास्वद्राहतद्रव्यवत् ततः प्रतीतिसिद्धमवयविनः चाचुषत्वं स्पार्शनत्वादि समुपलक्षयति वाधकाभावात् । इस उक्त कथन करके इस बात का भी प्रतिपादन कर दिया गया है, कि सर्वथा असत् हो रहे पदार्थ का प्रतिभास नहीं होसकता है, अतः श्रथं से अर्थान्तर को जानने वाले श्रुतज्ञान में भी नहीं प्रतिभास रहे ये द्रव्यरहित कोरे रूप प्रादिक पदार्थ अपना श्र तज्ञान द्वारा परिच्छेद होजाना स्वीकार करना चाह रहे वे अमूल्यदान क्रयी हैं, जैसे कि उन रूप आदिकों से रहित होरहा कोरा द्रव्य श्रमूल्यदान क्रयी है। अर्थात् - जब वणं, संस्थान प्रादिक - आत्मक स्कन्ध की स्फुट प्रतिपत्ति हो रही है, और द्रव्य हित कोरे रूप आदिक या रूप आदि से रहित कोरे द्रव्य की क्वचित्, कदाचित् कस्यचित्, प्रतीति नहीं हो रही है, ऐसी दशा में इनका श्रुतज्ञान में भी प्रतिभास नहीं होसकता है, अतः मूल्य नहीं देकर यों ही झपटलेना यह दोष सांख्य या बौद्धों के ऊपर ही आता है, स्याद्वादियों के यहां तो विषय करके
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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