SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम-प्रव्याय ३२५ पाती है अर्थात्-"सिद्ध सत्यारम्भो नियमाय" पूर्व सूत्र करके सभी पुद्गलोंकी उत्पत्ति प्रतीत होचुकी थी पुनः सूत्रकार करके जो इस सूत्र का प्रारम्भ किया गया है , वह नियम करने के लिये ही समझा जायेगा, नवीन मुख्य अर्थ की ज्ञप्ति तो पहिले सूत्र से ही होचुकी थी। सामर्थ्यादवधारणप्रतीतरेवकारावचनं । अभक्ष यत् । यस्मात् । विना कहे ही अर्थापत्ति की सामर्थ्य से अवधारण (नियम ) करने की प्रतीति होजाती है, अतः सूत्र में अन्ययोग का व्यवच्छेद करने वाले एवकार का कण्ठोक्त निरूपण नहीं किया है। जैसे कि अप भक्षण, में एव लगाने की कोई आवश्यकता नहीं दीखती। अर्थात्-कोई सज्जन पुरुष कहता है कि आज अष्टमी के दिन हमने अनुपवास किया है, जल पिया है, यहां ही को लगाये विनाही नियम नकल पाता है। जब कि अन्न, खाद्य, स्वाद्य पेय इन चारों प्रकारके भोजनों को करने वाला भी जल पीता है, ऐसी दशा में जल पीने का निरूपण करना व्यर्थ पड़ता है किन्तु वह सज्जन जल भक्षण कर रहा है अतः जलों का ही भक्षण माना जाता है, उस सज्जन ने शेष चार प्रकार की भुक्तियों का परित्याग कर दिया है । बंगाल में स्वल्प खाकर पानी पी लेने को या कलेऊ कर लेने को "जल खाइया छी' कहते हैं इस उत्तर देश में ..ल के साथ भक्षण क्रिया का जोड़ना खटकता है, यों अप भक्षण से विना कहे ही केवल कलेऊ ही किया, यह अर्थ निकलता है । मध्यान्ह का पूर्ण भोजन और सायंकाल के अवमौदर्य भोजन का व्यवच्छेद होजाता है, जिस कारण से कि। · भेदादणुरिति प्रोक्तं नियमस्योपपत्तये । पूर्वसूत्रात्ततोणूनामुत्पादे विदितेपि च ॥ १ ॥ यद्यपि " भेदसंघातेभ्य उत्पद्यते " इस पहिले सूत्र से ही उस भेद करके अणु को उत्पत्ति होना ज्ञात होचुका था तथापि नियम करने की सिद्धि करने के लिये सूत्रकार ने भेद से अणु उपजता है. बों यह सूत्र बढ़िया कह दिया है अर्थात्-पूर्व सूत्र से भेद करके अणू की उत्पत्ति होना कहा जा चुका है किन्तु “ एकयोगनिर्दिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः" इस परिभाषा अनुसार साथ में संघात और भेद-संघातों से भी अणू का उपजना कहा जा सकता है जो कि इष्ट नहीं है । अतः भेद से ही अणू की उत्पत्ति का नियम करने के लिये ही यह सूत्र बनाना पड़ा। अगवः स्कंधाश्च भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्त इति वचनारकंधानामिवाणुनामपि तेभ्यउत्पत्तिविधानान्नियमोपपत्त्यर्थमिदं सूत्रं भेदादणुरिति प्रोच्यते । तस्माद्मेदादेवाणरुत्पद्यते न संघाताझेदसंघाताभ्यां वा स्कंधवत । भेदादणु रेवेत्यवधारणानिष्टश्च न स्कन्धस्य भेदादुत्पविर्निवत्तिर्मेदादेवेत्यवधारणस्येष्टत्वात् । भेद और संघात तथा भेद-संघात दोनों इन तीन उपायों से प्रणूयें और स्कन्ध उत्पन्न हो जाते हैं। इस पूर्व सूत्र के वचन से ही स्कन्धों के समान अणुओं का भी उन तीनों उपायों से उत्पत्ति
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy