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________________ श्लोक-वार्तिक अब इस पर तुम यों कहो कि गंध, स्पर्श आदि का माक्षात्-कर्ता न होने से रूप जान गंध की ज्ञप्ति नहीं करा पाता है, अतः कोई दोष नहीं है, तब तो पदों से उत्पन्न हुआ पदार्थ का ज्ञान भी वाक्याशंका प्रकाशक नहीं होप्रो. ऐसी दशामें अन्धिताभिधान-वादियों के यहां पदार्थज्ञान किस प्रकार वाक्यार्थ का अध्यवसायी होगा? । चक्षु प्रादि का जैसे गन्ध आदि में ज्ञापकत्व सम्बन्ध निर्णीत नहीं है उसी प्रकार पद का वाक्यार्थ के साथ वाच्यवाचक सम्बन्ध नहीं निर्णीत होने से पद की वाक्यार्थ को कहने में सामर्थ्य नहीं है, अतः प्राभाकरों का अन्विताभिधान पक्ष ठोक नहीं है इससे तो भाट्टों का अभिहितान्वयवाद ही कुछ अच्छा जंचता है । अत एवाभिहितान्वयः श्रयानित्यन्ये, तेषामप्यभिहिताः पदार्थाः शब्दांतरेणावीयन बुद्धया वा १ न तावद द्यः पक्षः, शब्दान्तरस्याशेषादाविषयस्य कस्यचिदानष्टेः । द्वितीयपक्ष तु बुद्धिरेव वाक्य स्यान्न पुनः पदान्यव, तता वाक्याथप्रतिपत्तः । इस ही कारण से यानी प्राभाकरों के अन्विताभिधान पक्ष में कुछ अरुचि होने के कारण यह अभिहित पदार्थों का अन्वय होजाने से ही हमारा अभिहितान्वय-वाद श्रेष्ठ है प्रथम ही पदों करके स्वकीय स्वकीय पदार्थ कह दिये जाते हैं, परचात्-उनका अन्वय कर वाक्यार्थ बोध कर लिया जाता है, इस प्रकार कोई अन्य विद्वान् भट्टमतानुयायी कह रहे हैं । भावार्थ-मोमांसकों के भद्र, प्रभाकर, और मुरारि, ये तीन भेद हैं, शाब्दबाध के विषय में भट्ट और प्रमाकरों का मन्तव्य न्यारा न्यारा है। अभिहितान्वय-वादी भट्ट हैं , और अन्विताभिधान-वादी प्रभाकर हैं, रोटी से दाल खाना या दाल से रोटी खाना और खाकर पढ़ना या पढ़ कर खाना तथा धर्म के लिये जीवित रहना या जीवित रहने के लिये धर्म सेवन एव आरोग्य लाभ कर चुका पुरुष व्यायाम करता है, या व्यायाम कर चुका पुरुष आरोग्य लाभ करता है, तथैव द्रव्य कर्मों का उपार्जन कर चुका जीव भाव-कर्मों को करता है, या भाव-कर्मों को कर चुका जीव द्रव्य कर्मों का उपार्जन करता है । इन विषयों में जैसा स्वल्प या अधिक अन्तर है, उसी प्रकार अभिहितान्वय और अन्विताभिधान में थोड़ो विशेषता है,कहे जाचुके पदों करके अभिधावृत्ति या अपनी अपनी योग्य लक्षणावृत्ति द्वारा उपस्थित किये गये अर्थों का अन्वयकर जो वाक्यार्थ-बोध होना मानते हैं वे प्राचीन नैयायिक या भाट्ट तो अभिहितान्वय-वादी हैं। प्रथम "देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन" इस वाक्य के प्रत्यक पद का अर्थ पदों करके कह दिया जाता है, पश्चात् तात्पर्य नामक बृत्ति के वश से उन अभिहित अर्थों का ठीक ठीक अन्वय कर श्रोता को वाक्यार्थ का शाब्दबोध होजाता है। तात्पय वृत्ति को मानने वाले नैयायिक पुनः तीसरी व्यजना वृत्ति को प्रभीष्ट नहीं करते हैं, "घटं करोति" इस वाक्य का अर्थ ता घट में वत रहे कर्मपन के अनुकूल क्रिया करना समझा जाता है, तहाँ घट पद का अर्थ घड़ा है और अम् प्रत्ययका अर्थ कर्मपना है, वतना यद्यान किसो का अर्थ नहीं है, फिर मा तात्पय-वश से इन घट पार कति के संसग-मुद्रा कर वह प्रतिभाष-जाता हैं।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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