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________________ पंचम-अध्याय २८७ अब यदि गुरु मीमांसके यों कहें कि अभिधा-वृत्ति से नहीं कहे जा रहे किन्तु अर्थापत्त्या सम्बन्ध मिला कर यों ही जान लिये गये उन पहिले पिछले पदार्थों करके उम उच्चारित दूसरे, तीसरे, आदि पद के अभिधा वृत्ति से किये गये अर्थका अन्वय होजाना हम मानते हैं, किन्तु फिर कहे जा रहे पहिले, पिछले, पदों के शक्यार्थों के साथ द्वितीय पद का अन्वय नहीं है, क्योंकि द्वितीय पद का उच्चारण करते समय पहिले पिछले पद नहीं बोले जा रहे हैं, तिस कारण कई बार पदों के अभिधावृत्ति द्वारा किये जा रहे अर्थों की प्रतिपत्ति का प्रसंग यह दोष हम प्राभाकर मीमांसकों के ऊपर नहीं लगता है, यों कहने पर तो प्राचार्य कहते हैं, कि क्यों जी ! क्या शब्दों से इसी अवसर पर कहा जा रहा वह अर्थ ही क्या पद का अर्थ समझा जायेगा ? शक्यार्थ सम्बन्ध रूप लक्षणावृत्ति से या साहित्य वालों के यहां मानी गयी व्यंजना वत्ति से अथवा अन्य ज्ञापक चिन्हों करके अव्यभिचरित समझा दिया गया गम्यमान भला पद का अर्थ नहीं माना जायगा? बतायो। ___ यदि उक्त प्रसंग को टालने के लिये मीमांसक तिस प्रकार पोच सिद्धान्त को स्वीकार कर लेंगे तब तो पहिले पिछले होरहे अन्य पदों के अर्थों के साथ अन्वित होरहे स्वकीय अर्थ का उच्चायंमारण पद करके कथन किया जाता है, यह प्रभाकरों का सिद्धान्त कैसे रक्षित रह सकेगा ? क्योंकि अब तुम्हारे विचार अनुसार वर्तमान काल में बोला जा रहा विवक्षित दूसरा पद बेचारा अन्य पहिले तीसरे प्रादि पदों के अभिधेय होरहे किन्तु इस समय अर्थापत्त्या जाने जा रहे स्वकोय अनभिधेय अर्थों को कथमपि विषय नहीं करता है। अतः द्वितीय पद के अर्थ की उन पहिले पिछले पदार्थों के साथ अभिधेय होकर अन्वय प्राप्ति ही नहीं है अभिधेय पदार्थ की अनभिधेय अर्थों के साथ स्वकीय अर्थ का प्रतिपादन करने में सामर्थ्य नहीं मानी गयी है, शक्ति से बाहर कोई पदार्थ किसी छोटे से छोटे कार्य को भी नहीं कर सकता है । अब बतायो अन्वित का अभिधान कहां रहा?। ___ यदि पुनः पदानां द्वौ व्यापारी स्वार्थाभिधाने व्यापारः पदार्थान्तरे गमकत्वव्यापारश्च तदा इथं न पदार्थप्रनिपत्तिरावृत्या प्रसज्यते ? पदव्यापारात् प्रतीयमानस्य गम्यमानम्यापि पदार्थतादभिधीयमानार्थवत् । न च पदव्यागरात् प्रतीयमानोर्थो गम्यमानो युक्तः कश्चिदेवाविशेषात् । यदि प्राभाकर मीमासकों का फिर यह मन्तव्य होय कि पदों के दो व्यापार हुआ करते हैं एक स्वकीय अर्थों को कहने में अभिधान व्यापार है और दूसरा अन्य अगले, पिछले, पदों के अर्थों में गमक होजाने का व्यापार है तब तो हम जैन कहते हैं कि इस प्रकार वाचकत्व और गमकत्व दो व्यापारों के होते सन्ते वही दोष यानी प्रावृति से पदार्थों की प्रतिपत्ति होजाने का प्रसंग भला क्यों नहीं लग बैठेगा ? क्योंकि अन्य पदों का अभिधेय और इस पद के व्यापार से प्रतीयमान हो रहा सन्ता गम्यमान भी तो इसी पद का अर्थ है जैसे कि उच्चार्य माण पद का अभिधावृत्ति द्वारा कहा गया अर्थ इस विवक्षित. पद का अर्थ माना जाता है जब कि पद के व्यापार से दोनों अर्थ समान रूप
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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