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श्लोक-वातिक
होजाने से वह संघात अनेक हैं जैसे कि उन वर्णों के निज निज स्वरूप न्यारे न्यारे होरहे अनेक हैं तथा निराले पड़े हुये पृथक पदार्थों का एकी भाव होना-स्वरूप संघातपन परिणति की अपेक्षा कथन करने से उन अनेक वर्षों से भिन्न होने के कारण वह संघात एक समझा जायेगा, यह प्रतीतियों से सिद्ध विषय है । अत: परस्पर अपेक्षा रखने वाले वर्गों के निरपेक्ष समुदाय रूप पद को प्राप्त हुये वर्गों का काल प्रत्यासत्ति स्वरूप संघात है जो कि वर्णों से कथंचित् भिन्न प्रौर कथंचित् अभिन्न है । शब्दों के उच्चारण अनुसार वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति कराने में कालकृत प्रत्यासत्ति अभीष्ट है. हां पुस्तक में लिखे हुये उपचरित वर्णों की देश प्रत्यासत्ति से किया गया संघात भी चोखा माना जा सकता है, यों जैन सिद्धान्त अनुसार सघात का विवेचन करने पर वर्णों के संघात को वाक्य कह देने में कोई अनिष्टापत्ति नहीं है।
एतन सघातवर्तिनी जातिवाक्यामति चितित, तस्याः सघातेभ्यो भिन्न याः सर्वथानुत्पत्तः। कचिदभिन्नायास्तु संघातवदेकानेकस्वभावत्वसिद्धर्नानंशः शब्दात्मा कश्चिदेको वाक्यस्फाटोस्ति श्रोत्रबुद्धौ जात्यंतरस्यार्थप्रातपत्तिहेत : प्रातभासनात् एकानेकात्मन एव सर्वात्मना वाक्यस्य सिद्धः।
जैन मत अनुसार उक्त प्रकार का सघात वाक्य हो सकता है, इस विवरण करके संघात में वर्त रही जातिको वाक्य कहने का भी चिन्तन (चिन्तवन ) करदिया जा चुका समझ लेना चाहिये संघातों से सर्वथा भिन्न हो रही उस जाति की तो सभी प्रकारों से सिद्धि नहीं होसकती है जैसे पा से सर्वथा भिन्न घटत्व जाति नहीं सध पाई है तथा जातिवान् से सर्वथा अभिन्न भी कोई जाति नहीं सिद्ध होपाती है । हाँ अभी वखान दिये गये संघात के समान उस सधात में वत रही" कथंचित प्रभिन्न होरही जाति के तो एक अनेक स्वभाव से सहितपने को सिद्धि होजाती है, परस्पर अपेक्षा रखते हये पदोंके निराकांक्ष संघात में वत रही सदृश परिणाम स्वरूप और उन वर्णों या पदों से कथंचित् अभिन्न होरही जाति को वाक्यपना सुघटित है। उचित निर्णयों को मानने के लिये हम सर्व. था सन्नद्ध बैठे रहते हैं, अतः प्रशोंसे रहित होरहा नित्य एकस्वभाव वाला कोई भी एक वाक्य स्फोट नहीं है। पाख्यात शब्द, आद्यपद, अन्त्यपद, एक अन्वय शब्द, वणक्रम, वरणसंघात, सघातवर्तिनी जाति, इनको यदि वाक्य स्फोट कहा जायगा सो आपके मन्तव्य अनुसार इनका एक स्वभाव और अंश रहित स्वरूप से किसी को भी प्रतिभास नहीं होरहा है किन्तु सांश, अनित्य, एक स्वभावी, कथंचित् अनेक-स्वभावी, स्वरूप से ये जाने जारहे हैं । वाच्य अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के करण होरहे उक्त वाक्यों का श्रोत्र इन्द्रिय जन्य श्रावणप्रत्यक्ष में तो ऐसों का ता परिज्ञान होरहा है जो कि सर्वथा एक और सर्वथा अनेक यानी अभेद और सर्वथा भेद इन दोनों पक्षों से निरालो जाति के अनेक तीसरे कथंचित् भेदाभेद स्वरूप को धार रहे हैं, अपने सम्पूर्ण निज स्वरूप करके एकात्मक, अनेकात्मक हो रहे ही वाक्य की सिद्धि होरही है, विवाद बढ़ाना व्यर्थ है। तीसरी वार्तिक का विवरण होचुका, पक्ष