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श्लोक-वातिक
गुणपना और क्रमभावी होरहे ज्ञान आदि या रूप आदि के पर्यायपन-समान इस क्रमभावी शब्द का तो पर्यायपना बडी प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर लेने योग्य है।
एक बात यह भी है, कि शब्द को द्रव्ध साधने पर प्रयुक्त किया गया क्रियावत्व हेतु तो स्वरूपासिद्धहेत्वाभास है । पक्ष में हेतु नहीं वर्तता है, गन्ध आदि के समान उस शब्द के आधार होरहे पुद्गलद्रव्य के मुख्य क्रिया-महितपन का शब्द में उपचार कर दिया गया है, अर्थात्-दूर-वर्ती कस्तूरी के छोटे छोटे करण नासिका के निकट आगये हैं । अथवा कस्तूरी के निमित्त से गन्ध युक्त होगये यहाँ वहाँ के दूसरे वायु, धूल. आदि अशुद्ध द्रव्य क्रियावान् होकर घ्राण में आगये हैं गन्धगुण बेचारा प्राश्रयरहित होकर अकेला नहीं आसकता है, अतः गन्धवान् की मुख्य क्रिया का जैसे गन्ध में उपचार कर लिया जाता है, उसी प्रकार शब्द के आश्रय होरहे पुद्गल की मुख्य क्रिया का शब्द में उपचार से कथन कर दिया जाता है. आधार का धर्म प्राधेय में रख दिया जाय इसमें आश्चर्य नहीं। अतः मुख्यतया क्रियावान् नहीं होने से शब्द का द्रव्यपना नहीं सिद्ध होसकता है, प्रसिद्ध हेत्वाभास से प्रकृत साध्य की सिद्धि नहीं होपायगी।
___स्यान्मत, न शब्दयर्यायः श्रोत्रग्राह्यो द्रव्यं साध्यते किं तु तदाश्रयः पुद्गलविशेष इति, तर्हि क्रियावद्रव्यपर्यायः शब्दः परमार्थतः साध्यः ।
सम्भवतः मीमासकों का मन्तव्य यह होवे कि हम कान से ग्रहण करने योग्य शब्द नामक पर्याय को द्रव्य नहीं साध रहे हैं, किन्तु उस शब्द के प्राश्रय होरहे पुद्गल विशेष को द्रव्य सिद्ध करते हैं, तब तो हम जैन कहते हैं । कि यों तो क्रियावान् द्रव्य का पर्याय होर हा शब्द ही वास्तविक रूप से साधने योग्य हुआ, चलो अच्छी बात है, जैन सिद्धान्त भी ऐसा ही है, कि पुद्गल द्रव्य का विवत यह शब्द है, जो कि पुद्गलद्रव्य भाषावर्गणा स्वरूप होरहा सन्ता क्रियावान् भी है। तभी तो पुरुषप्रयत्न से अथवा वायु, विजली, आदि शक्ति से शब्द बहुत दूर तक फेंका हुमा चला जाता है, प्राधात, प्रतिघात, प्रतिवायु. करके शब्द लौट भी आता है, अतः द्रव्य. गुण, पर्यायों में से शब्द को पुद्गल द्रव्य का पर्याय मान लेना अच्छा जंचता है शब्द कहने से पर्याय ही पकड़ी जाती है । जैसे कि मतिज्ञान कहने से चेतना गुरुण की विशेषपर्याय का झटिति बोध होजाता है, चेतनागुण या जीव द्रव्य की मतिज्ञान से उपस्थिति होजाना कठिन है।
स्यादाकूतं ते, न द्रव्यं शब्दः साध्यते, नापि सवथा पर्णया किं तर्हि १ द्रव्यपर्शयात्मा, ततो न कश्चिद्दाषः क्रियावत्वस्य हेतोरपि परमार्थतस्तत्र सिद्धेः अनुवातप्रतिवाततिर्यग्वातेषु शब्दस्य प्रतिपत्त्यप्रतिपत्तीपत्प्रतिपत्तिदर्शनात् क्रियाक्रियाचसाधनादिति । किमेव गंधादिव्यपर्यायात्मा न साध्यत ? 'द्रव्यपर्यायात्माथ' इत्यकलंकदेवैरभिधानात् स्पर्शादीनां चेंद्रियार्थत्वकथनाद, स्पर्शरसरूपगन्धशब्दास्तदर्था इति सूत्रसद्भावात् ।