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पंचम अध्यायं
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प्रकार रूप आदिक पर्याय हैं, उसी प्रकार शब्द भी पुद्गल का पर्याय है, इस कारण वह शब्द भला किस प्रकार द्रव्य होसकेगा ? । अर्थात् शब्द कोई द्रव्य नहीं है. हां किसी पुद्गल द्रव्यका गुरण या पर्याय अवश्य सध जाता है, दूसरो बात यह है, कि "शब्दो द्रव्यं क्रियावत्त्वात् वारणादिवत्" इस दूसरों के अनुमान अनुसार शब्द को द्रव्य मानने पर जीव आदि छः द्रव्यों की नियत संख्या अनुसार को गयी प्रतिज्ञा से विरोध आता है, शब्द को मिला कर जीव आदि द्रव्य सात हुये जाते हैं, द्रव्यों की सात संख्या इष्ट नहीं ।
शब्दद्रव्यस्य पृथिव्यादिवत्पुद् गलद्रव्येंतर्भावान्न तद्विरोध इति चेत्, गधद्रव्यादीनामपि तद्वत्तत्रान्तर्भावात्तद्विगेधामिद्धेर्गुणत्वं किमभिधीयते, हानादीनां च द्रव्यत्वमस्तु जीवद्रव्येंतर्भाव प्रसक्त: द्रव्यसंख्यानियमाविघातात् । तथा च न कश्चिद्गुण इति द्रव्यस्याप्यभावः तस्य गुणवच्वलक्षणत्वात् । ततां द्रव्यगुणपर्यायव्यवस्थामिच्छता ज्ञानादिरूपादीनामिव शब्दस्य सहभाविनो गुणत्वं क्रमभुवस्ते पर्यायत्वमभ्युपगंतव्यं क्रियावत्वं च शब्दस्यासिद्ध गंधादिवत् तदाश्रयस्य पुदगलद्रव्यस्य क्रियावच्चोपचारात् ।
शब्द को द्रव्य कहने वाले वादी यदि यों कहैं कि ग्राप जैन भाई पृथिवो, जल अग्नि, वायु को पुद्गल द्रव्य में ही गर्भित करेंगे, शब्द को द्रव्य मानने पर भी पृथिवी, जल आदि के समान उसका पुद्गल द्रव्य में अन्तर्भाव होजायगा, अतः द्रव्यों की छह संख्या के अतिक्रमण को शंका करते हुये जंनों को कोई उस प्रतिज्ञा से विरोध नहीं प्राता है अर्थात् जाति की अपेक्षा पुद्गल द्रव्य एक है. किन्तु व्यक्तियों की अपेक्षा तो जीव द्रव्य से भी प्रान्तानन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं । श्रतः शब्द को द्रव्य होजाने दो, कोई भय नहीं है । यों कहने पर तो प्राचार्य कहते हैं कि इसी प्रकार उत पृथिवी आदिकों के समान गन्धवान् द्रव्य के गुण होरहे गन्ध आदि का भी उस पुद्गल द्रव्य अन्तर्भाव होजाने से उस प्रतिज्ञात से विरोध प्रजाना प्रसिद्ध है, अतः क्यों फिर गन्ध, रूप, श्रादि
के गुणपन का समर्थन किया जाता है ? । तथा इसी ढंग से ज्ञान, सुख प्रादि को भी द्रव्यपना ध जाम्रो ज्ञान आदि द्रव्यों का जीव द्रव्य में अन्तर्भाव होजाना प्रसंगप्राप्त होजाने से द्रव्यों की संख्या के नियम का कोई विघात नहीं होपाता है, और तिस प्रकार दशा होने पर कोई भी अस्तित्व, वस्तुत्व, रूप, रस, ज्ञान, सुख, आदि गुण बेचारे स्वकीय स्वरूप से नहीं ठहर पायेंगे, सभी गुण द्रव्य बन बैठेंगे । तथा यों द्रव्यों का भी प्रभाव होजायगा क्योंकि गुण - सहितपना उन द्रव्यों का लक्षण माना गया है, जब गुरण ही नहीं रहे तो गुरणवान् की सिद्धि कैसे होसकती है ? । तिस कारण यदि अनिष्ट प्रसंगों को निवारण करने की आशा है, तो बने बनाये सिद्धान्त को मत विगाड़ो | द्रव्य और गुण तथा पर्यायों की सुव्यवस्था को चाहने वाले विद्वानों करके सहभावी होरहे ज्ञान सुख प्रादि अथवा रूप, रस, प्रादिकों के गुण होजाने-समान सहभावी हो रहे शब्द का भी
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