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________________ २२० श्लोक-वातिक एतेनैतदपि प्रत्युक्तं । यदुक्तं योगः- न स्पर्श व्यगुणः शब्दोऽस्मदादिप्रत्यं क्षत्वे सत्ययावद्रव्यभाविवादकारणगुणपूर्वकत्वाद्वा सुखा द दिति, पक्षस्य प्रकृतानुमानवाधि तत्वात् । शब्दस्य द्रव्यार्थादेशादयावद्द्व्यम वित्वासिद्धिश्च रूपादिवत् पर्यायार्थादेशादकारणगुणपूर्वत्वस्याप्यसिद्धिः शब्दपरिण तानां पुद्गलानामपरापरमदृशशब्द रंभकत्वात् । अन्यथा वक्तदेशादन्यत्र शब्दस्याश्रणप्रसंगात् - इस उक्त कथन करके इस बातका भी खण्डनकर दिया गया है जो कि वैशेषिकों या नैयायिक ने यों कहा था कि शब्द ( पक्ष ) स्परांवाले पृथिवी. अप, तेज, वायु द्रव्यों का गुण नहीं है ( साध्य ) क्योकि हम आदि जीवों के प्रत्यक्ष का विषय होता सता शब्द अपने प्राश्रय माने गये द्रव्य के परिपूरणं भागों में वृत्ति होरहा नहीं है ( एक हेतु )। अथवा अपने कारण के गुणों को पूर्ववर्ती मान कर शब्द नहीं उपजता है, अर्थात्-घट रूप आदिक जैसे अपने कारणके कारण होरहे मृत्तिका के रूप या कपाल के रूप से उपज जाते हैं वैसा अपने कारणों के गुणों अनुसार शब्द की उत्पत्ति नहीं है ( दूसरा हेतु) सुख, इच्छा, आदि से समान ( अन्वयदृष्टान्त ।। इस पर प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रतिज्ञा की प्रकरण-प्रा'त अनुमान से वाधा प्राप्त होजाती है, भावार्थ-शब्दो न स्पर्शवद्विशेषगुणः, शब्दा न दिक्कालमनो गुगण: विशेषगुणत्वात्, नात्मविशेष-गुराण: शब्दो वहिरिन्द्रियग्राह्यत्वात् इन अनुमानों से परिशेष न्याय द्वारा शब्द को आकाश का गुण सिद्ध करने का वैशेषिकों ने प्रयत्न किया है, किन्तु शब्द आकाश का गुण नहीं है वहिरंग इन्द्रिय ( कान ) का विषय होने से गन्ध आदि के समान, इस निर्दोषअनुमान करके वैशेषिकों के अनुमान का हेतु वाधित हेत्वाभास होजाता है तथा द्रव्याथिक नय अनुसार कथन करने से शब्द के प्रयावद्व्य भाविपन की असिद्धि है जैसे कि रूप, रस, आदिक पदार्थ अपने आश्रय होरहे द्रव्य में यावत्द्रव्यभावि हैं द्रव्य के कुछ भागोंमें रहें, कुछ भागोंमें नहीं रहें ऐसे नहीं हैं। इसी प्रकार जो द्रव्य शब्द होकर परिणत होगया है, उस उतने द्रव्य का शब्द नाम का विवत यावद्रव्यभावी है, अयावत्द्रव्यभावि नहीं है। वैशेषिकों का दूसरा हेतु अकारणगुणपूवकपना भी प्रसिद्ध है क्योंकि पर्यायाथिक नय अनुसार कथन करने से शब्द स्वरूप परिणत होरहे पुद्गलहो उत्तरात्तर सदृश शब्दोंका प्रारम्भ करने वाले माने जाते हैं, अतः शब्द कारण-गुण-पूर्वक हो है, अन्यथा यानो शब्दों को यदि कारणगुण पूर्वक नहीं माना जायगा तो वक्ता के मुख प्रदेश के सिवाय अन्य स्थलों में शब्द के नहीं सुने जाने का प्रसंग आवेगा अतः वैशेषिकों के दोनों हेतु स्वरूपासिद्ध हैं। * ननु च वक्तृव्यापारात्पुद्गलस्कन्धः शब्दतया परिणमन्नेकोन को वा परि मेद ? न तावदेकस्तस्य सकृत्सर्वदिक्षु गमनासंभवात् । यदि पुनर्गवद्भिः सर्वदिक्कैः श्रोतामः श्रूयते शब्दस्तावानव वक्तृव्यापारनिष्पन्नः तच्छात्राभिमुख गच्छतीति तमत, तदा सदृशशब्दकालाहलवणं श्रोतृजनस्य कुतो न भवेत् ? सर्वेषां शब्दानामेक श्रोतग्राह्यत्वरिणामम वादित चेत्, ता केकः शब्द एकैकश्रातग्राह्यत्वपारणतः सदिक्कं गच्छ-नककनैव श्रात्र। श्रूयत इन्यायातं । तच्चायुक्त,एकदिक्षु सप्राणधिषु श्रातृषु स्थितष्पत्यासनश्रातृ श्रात्रस्य परापरशब्दश्रवणविरापात् ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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