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पंचम - अध्याय
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कथमपि नहीं रख सकता है अन्तः प्रकाशरूप तो चैतन्यपदार्थ ही है, वारणी या शब्दस्फोट अन्तर्ज्योतीरूप नहीं हैं, ध्वनि से निराला अन्तरंग प्रकाशस्वरूप शब्द स्फोट यदि न्यूनातिरिक्त प्रर्थों की ज्ञप्ति का हेतु समझा जायगा तब तो गन्ध, रूप, आदि से निराला गन्ध स्फोट रूपस्फोट, रसस्फोट, स्पर्शस्फोट भी क्यों नहीं स्वीकार कर लिये जावें ? अर्थात् प्रसिद्ध हो रहे गन्ध को अर्थ का प्रत्यापक नहीं मानकर गन्धमें एक नित्य व्यापक निरंश, गन्धस्फोट मान लियाजाय जैसे कि शब्दस्फोट गढ़ लिया गया है । यदि गन्धस्फोट पर कोई आक्ष ेप किया जायगा तो वही प्राक्षेप मीमांसकों के शब्दस्फोट पर भी लागू होगा। मीमांसक यदि शब्द स्फोट पर लगाये गये प्रक्षेप का कोई समाधान करेंगे वही समाधान गन्धस्फोट के लिये भी प्रौषधी होजायगा, रसस्फोट श्रादि में भी यही लगा लेना । सत्यार्थ रूप से विचार करने पर शब्दस्फोट के समान उन गन्धस्फोट आदि में भी आक्षेप और ससाधान सभी प्रकार तुल्यरूप से लागू होजाते हैं ।
नाकाशगुणः शब्दो वाह्य दियविषयत्वाद्गंधादिवदित्यत्र न हेतुर्व्यभिचारी विपक्षावृत्तित्वात् । पटाकाशसंयोगेन व्यभिचार इतिचेन्न, तस्याकारागुणत्वैकांताभावात् तदुभयगुणत्वात् । तत्र वाह्य द्रियविषयत्वासिद्धेः संयोगिनो गगनस्यातीन्द्रियत्वात् । पटस्येंद्रियविषयत्वेपि तत्संयोगस्य तदयोगात् । तदुक्तमन्यैः । " द्विष्ठ ( द्वय ) | संबंधसंवित्तिनै करूपप्रवेदनात् । द्वयस्वरूपग्रहणे सति संबंधवेदनं" इति ।
शब्द ( पक्ष आकाश द्रव्य का गुरण नहीं है ( साध्य ) वहिरंग इन्द्रियों का विषय होने से ( हेतु ) गन्ध आदि के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । यों इस अनुमान में प्रयुक्त किया गया वाह्य इन्द्रियों का विषयपना हेतु व्यभिचार दोष वाला नहीं है क्योंकि विपक्ष या विपक्ष के एक देश में भी नहीं वर्त रहा है। यदि यहाँ कपड़ा और प्राकाश दोनों के संयोग करके व्यभिचार उठाया जाय कि भले ही आकाश अतीन्द्रिय है फिर भी श्रांखों या स्पर्श इन्द्रिय से कपड़ा जान लिया जाता है, अतः कपड़ा और आकाश का संयोग वहिरंग इन्द्रियों से ग्राह्य तो है किन्तु उस संयोग में "आकाश के गुण होने का प्रभाव" यह साध्य नहीं है, पटके समान आकाशका भी गुण “पट प्रकाश संयोग" हो रहा है ग्रन्थकार कहते हैं कि यह व्यभिचार दोष तो नहीं उठाना क्योंकि उस पट - आकाश संयोग को एकान्तरूप से श्राकाश के ही गुरण होजाने का प्रभाव है वह पट - आकाशसंयोग तो वस्त्र और प्रकाश दोनों का गुरण है, अतः उस वस्त्र - - प्रकाश संयोग में वहिरंग इन्द्रियों का गोचरपना प्रसिद्ध है, कारण कि वस्त्र प्रकाश संयोग का धारी माना गया आकाशद्रव्य तो प्रतीन्द्रिय है भले हा उस संयोग का धारक पट भी है और पट वहिरंग इन्द्रियों का विषय भी हो रहा है तथापि उन श्रतीन्द्रिय आकाश और इन्द्रियगोचर पटके संयोगको उस वाह्य इन्द्रिय की विषयता का प्रयोग है । अन्य वैशेषिक विद्वानों ने भी उस बात को यों अपने ग्रन्थों में कहा है कि दोनों के या दो में रहने वाले सम्बन्ध का परिज्ञान केवल एक ही पदार्थ के स्वरूप का सम्वेदन करने से नहीं होजाता है दोनों के स्वरूप का ग्रहरण होने पर ही उन में रहने वाले सम्बन्ध का ज्ञान हो सकता है "द्वौ श्रवयवो यस्य तद्वयं द्वयोस्तिष्ठतीति द्विष्ठः ।,, बात यह है कि दोनों में एकम एक होकर ठहर रहे सम्बन्ध की प्रतिपत्ति तो दोनों का परिज्ञान होजाने पर हो सकती है, अन्यथा नहीं । अतः वहिरंग इन्द्रियों का - विषय नहीं हो सकने के कारण उस वस्त्र - आकाश के संयोग करके हेतु में व्यभिचार दाष नहीं लगता है ।