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पंचम-मध्याय
२०७ प्रतिपत्ति हो जाती है तथापि प्रकाण्ड विद्वान् श्री उमास्वामी महाराज के इन सूत्रों की सामर्थ्य से अनुमान करने योग्य सम्पूर्ण छहों द्रव्यों की इस प्रकार होचुकी प्रतिपत्ति तो किसी भी प्रमाण करके वाधी नहीं जाती है जैसे कि हथेली पर रखे हुये आमलेके समान प्रत्यक्ष किये जारहे पदार्थों को प्रतीति निर्वाध है । अर्थात-सूत्रकार महाराज ने बड़ी विद्वत्ता के साथ ज्ञापकलिंगों करके अतीव परोक्ष धर्मादिकोंका निर्वाध अनुमान करा दिया है । प्रास्तिक पुरुष थोड़ासाभी विचार करेंगे तो कुशलता पूर्वक वे धर्मादि द्रव्यों को वाधारहित समझ जायंगे।
यों स्थूल घुद्धि वाले जीव तो प्रत्यक्ष किये जा चुके पदार्थों का ही अपलाप कर दें तो कोई क्या कर सकता है? शरीर में रक्त को सदा गतिमात रखने वाली शक्ति अवश्य माननी पड़ेगी। हड्डी, मांस,मादिको स्थिर रखने वाले प्रयत्न भी स्वीकार करने पड़ते हैं। भोजन,पान,वायु,आदिको अवगाह देने वाले कारण भी शरीर में विद्यमान हैं, पुद्गल पिण्ड-प्रात्मक तो शरीर है ही। जीवित शरीर में प्रात्म-द्रव्य को सभी इष्ट कर लेते हैं, अन्न प्रादि को पचाने या रस आदि को यहां वहां योग्य अवयवों में पहं चाने अथवा अवयवों को जीर्ण कराने वाले पदार्थ भी इस शरीर में पाये जाते हैं। इसी प्रकार लोक में छहों द्रव्य भरे हुये हैं यदि किसी को स्वबुद्धि की न्यूनता से उनका परिज्ञान नहीं होय तो इसमें पदार्थों का कोई दोष नहीं है खरहा(खरगोश) यदि कानों से आंखों को दुवकाकर प्रत्यक्ष पदाथों को नहीं देखे एतावता उन पदार्थों की असत्ता नहीं मानी जायगी,अथवा उष्णस्पर्श वाले और नाड़ी की क्रिया को रखने वाले शरीर को कोई कुवैद्य मृत शरीर कह रहा यदि उसमें चैतन्य का अनुमान नहीं कर सकता है इतने ही से उस शरीर-वर्ती जीव का प्रभाव नहीं मान लिया जाता है। सर्वज्ञ प्रणीत आगम और गति,उपग्रह,आदि लिंगों से उपजे अनुमानोंकरके अथवा सवज्ञ प्रत्यक्ष करके धर्म प्रादि द्रव्यों की निर्वाध प्रसिद्धि होरही है।
न हि धर्मास्तिकायाद्यनुमेयार्थप्रतिपचिरस्मदादिप्रत्यक्षेण वाध्यते तस्य तदविषयत्वात् न संति धमादयाऽनुपलब्धेः खरशृङ्गगवदित्याद्यनुमानेन वाध्यते इतिचेन,तस्याप्रयांजकत्वात् । परचेतावृत्यादिना व्यभिचारात् । दृश्यानुपलब्धिः पुनरत्रासिद्धेव सर्वथा धर्मादीनामस्मदादिभिः प्रत्यक्षतोनुपलभ्यत्वात् । कालात्ययापदिष्टश्च हेतुः प्रमाणभूतागमावाधितपक्षनिर्देशानंतर प्रयुक्तस्यात् एवमय धितप्रतीतिगोचरार्थप्रकाशिनः सूत्रकारादयः प्रेक्षावतां स्तोत्रा इति स्तुवंति ।
अनुमान करने योग्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आदि अर्थों की होरही प्रतिपत्ति कुछ हम लोगों के प्रत्यक्ष करके वाधित नहीं होती है। क्योंकि हम लोगों का प्रत्यक्ष उन धर्म मादिकों को विषय ही नहीं कर पाता है, जो ज्ञान जिस पदार्थको विषय ही नहीं कर पाता है । वह उसका साधक या वाधक क्या होगा? जैसे कि घास खोदने वाला गंवार पुरुष किसी वैज्ञानिक के गूढ़ रहस्यों पर कोई उपपत्ति या अनुपपत्ति नहीं दे सकता है। कोई पण्डित यहां धर्म आदि द्रव्यों का वाधक अनुमान प्रमाण यों उपस्थित करता है, कि धर्म आदिक द्रव्य ( पक्ष ) नहीं हैं ( साध्य ) उपलब्धि नहीं होने से ( हेतु ) गधे के सींग समान (अन्वय दृष्टान्त )। अयवा धर्म आदि द्रव्य नहीं हैं, (प्रतिज्ञा) क्योंकि सनके द्वारा किये माने गये गति स्थिति पाक्षिकार्य सब निमित्त या उपासन कारणों करके