SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम-अध्याय २.५ एवं प्रतिक्षणादित्यगतिप्रचयभेदतः । समयावलिकोच्छ्वासप्राणस्तोकलवात्मकः ॥५३॥ नालिकादिश्च विख्यातः कालोनेकविधः सतां । मुख्यकालाविनाभूतां कालाख्यां प्रतिपद्यते ॥५४॥ इस प्रकार ढाई द्वीप में प्रति क्षण होरही सूर्य की गति के समुदाय के भेद प्रभेदों से समय, प्रावलि, उत्श्वास, प्राण, स्तोक, लव स्वरूप और नाली, मुहूत, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष,पूर्व प्रादिक अनेक प्रकार व्यवहार काल सज्जन विद्वानों के यहाँ प्रसिद्ध होरहा है, जो कि मुख्य काल के विना नहीं होने वाले व्यवहार काल इस संज्ञा को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् मन्दगति से परमाणु का दूसरे प्रदेशपर गमन जितने काल में हो वह एक समय नामका व्यवहार काल है। जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण समयों का पिण्ड काल प्रावलि है, संख्यात प्रावलियों का समूह उच्छवास काल है, नीरोग पुरुष का एक वार में श्वास चलना या नाड़ी की गति होना उच्छवास प्राण कहा जाता है,सात उच्छवास काल का समुदाय एक स्तोक होता है.सात स्तोक काल का एक लव होता है,साढ़े अड़तीस या साढे सेंतीस लव कालका संघात एक नाली यानी घड़ी है,दो घड़ीका एक मुहूर्त होता है, तीसमुहूर्तका एक दिन रात, और पन्द्रह दिन रात का एक पक्ष दो पक्षका एक मास,दो मास की एक ऋतु, और तीन ऋतु का एक अयन होता है, दो अयन काल का एक वर्ष होता है, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है. चौरासी लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व होता है. अथवा सात नील पांच वर्व साठ अरब ७०५६०००००००००० वर्षों का एक पूर्व होता है, असंख्याते पूर्वो का एक उद्धार पल्य होता है, दस कोटाकोटि उद्धार पल्यों का एक उद्धार सागर होता है प्रसंख्याते उद्धार सागरों का एक प्रद्धासागर होता है, बीस कोटाकोटी प्रद्धासागरों का एक कल्प काल होता है, असंख्यात कल्प कालों का एक सूच्यंगुल काल होता है। यानी एक प्रदेश लम्बे चौड़े और पाठ पड़े जौ प्रमाण उत्सेधांगुल परिमित ऊंचे आकाश में परमाणु वरोबर उतने प्रदेश हैं, जितने कि असंख्याते कल्पकालों के समय हैं. यों अनेक प्रकार व्यवहार काल सज्जनों के यहाँ मान्य है । श्वेताम्बर भाई मुख्य काल को नहीं मान कर केवल व्यवहार काल को मान बैठे हैं, वे उचित मार्ग पर नहीं चल रहे हैं, व्यवहार काल मुख्य का अविनाभावी है जैसे कि देवदत्त में उपचार से प्रारोपा गया सिंहपना कचित् मुख्य सिंह को माने बिना नहीं घटित होपाता है। परापरचिरक्षिक्रमाक्रमधियामपि। हेतुः स एव सर्वत्र वस्तुतो गुणतः स्मृतः ॥५५॥ किसी बुड्ढे में परपने की बुद्धि, बालक में अपरपने की कनिष्ठ बुद्धि, देरी से किये गये कार्य में चिरपने की बुद्धि, शीघ्र किये गये कार्य में शीघ्रता का ज्ञान, इसी प्रकार क्रम से होरहा अक्रम से होरहा इत्यादि ज्ञानों का भी बहिरंग कारण प्रधानतया वह व्यवहार-काल ही सर्वत्र माना गया
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy