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________________ पंचम-अध्याय दूरदेश-वर्ती और उससे न्यारे निकटदेश-वर्ती पदार्थों की अपेक्षासे होने वाले तथा प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय पदार्थोंकी अपेक्षाओं करके होने वाले दैशिक या गुणकृत परत्व, अपरत्व दोनों करके व्यभिचार हो जानेका प्रकरण आता है। अर्थात्-कालिक परत्वापरत्वके प्रकरणमें देश, दिशा या गुण, दोषकी अपेक्षासे होरहे परत्व,अपरत्वोंमें वपरीत्य होजाता है । देखिये निकट देश-वर्ती अपर दिशाका सम्बन्ध रखने वाले प्रशस्त (चाण्डाल ) लोभी वद्ध मनुष्य में परत्व (ज्येष्ठत्व) ज्ञान का कारण परत्व स्वभाव है । तथा दूर देश-वर्ती पर दिशाका सम्बन्ध कर रहे प्रशस्त कुमार अवस्थावाले तपस्वी में अपरत्व ज्ञान का कारण अपरत्व घमं विद्यमान है. वह बुढढे पुरुष में वर्त रहा परत्व और कुमार मुनि में पाया जा रहा अपरत्व धर्म जब कि गुणों के द्वारा किया गया तो नहीं है यानी गुण के द्वारा किया गया होता तो युवा तपस्वी को पर कहना चाहिये था और निकृष्ट लोभी वृद्ध को अपर कहा जा सकता था। इसी प्रकार वह परत्व, अपरत्व दिशाकृत भी नहीं हैं। दिशा कृत होते तो निकट देश में वर्त रहे बुड्ढे को अपर कहना चाहिये और बुड्ढे की अपेक्षा बहुत दूर देश में स्थित होरहे कुमार तपस्वी को पर कहना चाहिये था किन्तु यहां उल्टी ही, दशा है वृद्ध को पर कहा जा रहा है और युवा साधुको अपर कहा जा रहा है। उक्त परत्व, अपरत्व स्वभाव विचारे हेतु के विना ही किये जा रहे तो नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि जो पहिले नहीं होता हुआ पुनः उपजता है वह अवश्य कारणों से जन्य है। इस कारण उन परत्व, अपरत्वों का कारण दिशा या देश और गुण या दोष तो नहीं है। उनका कारण इन दिशा या गुण के अतिरिक्त कोई विशिष्ट पदार्थ होना चाहिये, बस वही पदार्थ हम स्याद्वादियों के यहां काल माना गया है, इस प्रकार काल की सिद्धि हो जाती है। काले तर्हि दिग्भेदगुणदोषानपेचे परत्वापरत्वे परः कालोऽपरः काल इति प्रत्ययविशेषनिमित्ते किं कृते स्यातामिति चेत्, अध्यारोपकृते गोणे इति केचित् । स्वहंतुके मुख्य एव स्वान्यप्रत्ययसमधिगमत्वादित्यन्ये। यहां किसी पण्डित का आक्षेप है कि ज्येष्ठ, कनिष्ठ, जीव प्रादि पदार्थों में परत्व, अपरत्व, यदि काल कृत हैं तो फिर काल में " यह सौ वर्ष का काल पर है, यह दो वर्ष का काल अपर है" इस प्रकार ज्ञान विशेष कराने के निमित्त होरहे परत्व, अपरत्व भला किस पदार्थ के द्वारा किये गये होंगे? बतायो, दिशामों के भेद या गुण दोषों की अपेक्षा से तो काल में परत्व अपरत्व नहीं किये जा सकते हैं, कारण कि व्यवहार काल में दिशा भेद का अथवा गुण दोषों का प्रकरण ही कोई नहीं है, यदि अन्य कालकी अपेक्षा इस कालमें परत्व अपरत्व किये जायंगे तो उसमें भी परत्व,अपरत्वको करने के लिये अन्य कालोंकी अपेक्षाको आकांक्षा बढ़ती जा रही होने से अनवस्था दोष पाजावेगा। इस प्राक्षेप का उत्तर कोई उतावले पण्डित झट यों दे बैठते हैं, कि काल में परत्व, अपरत्व तो केवल मारोप किये गये हैं । मूर्त द्रव्यों में पाये जा रहे परत्व, अपरत्व के समान वे मुख्य नहीं हैं, गौण हैं। जैसे कि जपाकुसुम की लालिमा का आरोप स्फटिक में कर लिया जाता है । इस समाधान में अस्वरस है, अतः ग्रन्थकार दूसरे अन्य विद्वान् करके इसको योग्य समाधान कराये देते हैं, कि व्यवहार काल में होरहे वे परत्व प्रपरत्व भी मुख्य ही हैं, और उनका कारण वह काल स्वयं है । क्योंकि स्व और अन्य के परत्व, अपरत्व, का कारण होरहेपन करके वह काल भले प्रकार जाना जा रहा है, आकाश भी तो स्व और पर को अवगाह देता है, सर्वज्ञका ज्ञान या सभी ज्ञान स्व-पर-ज्ञायक हैं, सूय स्व-पर-प्रकाशक है इत्यादि दृष्टान्तों अनुसार काल को भी स्व मौर पर के परत्व, अपरत्वों का हेतुपना निर्णीव
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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