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पंचम-अध्याय
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सिद्धान्त वाक्य है "स्वपरात्मोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वं" स्वकीय अशों को पकड़े रहना और परकीय स्वभावों का परित्याग करते रहना इस व्यवस्था से वस्तु का वस्तुत्ब प्राप्त कराया जाता है। श्री माणिक्यनन्दि प्राचार्य महाराजका सत्र है कि "पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षण-परिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च,, पूर्व प्राकारों का परित्याग और उत्तर आकारों की प्राप्ति तथा अन्वित ध्रौव्यसे स्थिति इस परिणाम करके अर्थमें अर्थक्रिया होना बन जाता है, अतः परिणाम वस्तुमें अथक्रिया या क्रमयोगपद्यकी प्रसिद्धि है,यही प्रमाणों द्वारा प्रतीति होरही है। सर्वथा क्षणिक या सर्वथा नित्य अर्थ में क्रिया नहीं होसकती है।
कथं पुनरेवं वधा क्रिया कालम्योपकारोस्तु यतस्तं गमयेत ? कालमंतरेणानुपपद्य मानत्वात् परिणामवत् । तथाहि-सकृन्सबद्रव्यक्रिया वहिरंगसाधारणकारणा, कारणापेक्ष कार्य
गत परिणामवत् सकृत्मर्व पदार्थगतिस्थि यगाहबद्वा यत्तद्वहिरंगसाधारणकारणं स कालोऽ. न्यासंभवात् ।
कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि आप जैनों ने वर्तना' परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व इन उपकारों करके काल का अनुमान ज्ञान किया जाना बताया है किन्तु इस प्रकार की क्रिया फिर किस प्रकार काल का उपकार होवे ? जिससे कि क्रिया उस काल को अनुमान द्वारा समझा सके ? इस प्रश्न का समाधान श्री आचार्य महाराज करते हैं कि काल के विना वह क्रिया का होना किसी भी प्रकार नहीं बन सकता है जैसे कि काल के विना परिणाम होने की कोई युक्ति नहीं है, अतः अन्यथानुपपत्ति की सामर्थ्य से क्रिया करके काल का अनुमान होजाता है, इसी को अनुमान बनाकर यों स्पष्ट समझ लीजिये कि सम्पूर्ण द्रव्यों की युगपत् होरही क्रिया ( पक्ष ) वहिरंग किसी साधारण कारण करके की जाती है ( साध्यदल ) कारणों की अपेक्षा रखने वाली कार्य होने से । हेतु ) परिणाम के समान (अन्वय दृष्टान्त ) अथवा सम्पूर्ण गतिमान् जीव. पुद्गल पदार्थों की युगपत् होरही गति और सम्पूर्ण स्थितिशील पदार्थों की एक ही वार में होरही स्थिति तथा सम्पूर्ण पदार्थों का एक ही साथ होरहा अवगाह ये क्रियायें जैसे वहिरंग साधारण कारणों की अपेक्षा रखती हैं । अन्य तीन अन्वयदृष्टान्त ) जो कोई यहां क्रियामें वहिरंग साधारण कारण है वही काल पदार्थ है. अन्य किसी पदार्थ की सम्भावना नहीं है।
अर्थात्-पदार्थों के परिणाम होने में साधारण कारण काल ( व्यवहार काल ) निर्णीत कर दिया गया है पदार्थों की गति में साधारण कारण धर्म द्रव्य को बता दिया है, पदार्थों की स्थिति में उदासीन तिमित्त अधर्म द्रव्य समझाया जा चुका है, आकाश द्रव्य को सब के अवगाह का हेतुपना प्रतीत करा दिया है। इसी प्रकार सभी परिस्पन्द-यात्मक क्रियाओंका वहिरंग कारण काल है। उदासीन कारण तथा च-प्रेरक कारण, निमित्त, उपादान कारण, प्रयोजक कर्ता, साधकतमकरण, अन्तरंग कारण, वहिरग कारण, इत्यादि अनेक प्रकार कारणों में किसी को निर्बल दूसरे को सबल या किसी को छोटा बड़ा अथवा प्रधान अप्रधान, या मूल्यवान् नहीं कह देना चाहिये देखो पुत्र की उत्पत्ति में माता पिता निमित्त हैं, विद्या पढ़ाने में गुरू जी निमित्त हैं, मोक्ष प्राप्ति में देव, शास्त्र, गुरू भी निमित्त ही हैं, सिद्ध क्षेत्र,जिनालय जिनविम्ब ये सब धर्मलाभके निमित्त ही तो हैं। इन सब निमित्तों की हम पूजा करते हैं। उपादान का उतना आदर नहीं है। हां उपशम क्षेणी या क्षपक क्षेणीमें