________________
पंचम-अध्याय
१६५
जो कोई पण्डित यहां यों कह रहे हैं कि आप जैनों के यहां तो काल द्रव्य के लिये यों लिखा है कि वह काल द्रव्य भावों को स्वयं नहीं परिणमाता है और स्वयं भी परिणमन नहीं करता है, हां नाना प्रकार परिणामों को धारने वाले पदार्थों का वह काल केवल निमित्त होजाता है, इस प्रकार काल के परिणाम नहीं होना सिद्ध है, फिर आप जैनों ने कालके परिणाम होना कैसे कहा ? अर्थात्काल द्रव्य का परिणाम नहीं होना चाहिये, गोम्मटसार में कहा है कि
म य परिणमदि सयं सो ण य परिणामेइ अएमएणेहिं ।
विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेदु ।।५६६ ॥ काल द्रव्य स्वयं परिणमन नहीं करता है और न दूसरे द्रव्यों को अन्य द्रव्यों के साथ परिणमन कराता है,हाँ स्वतः अनेक प्रकार परिणमन कर रहे पदार्थों का काल द्रव्य हेतु होजाता है। यों कह..
पर ग्रन्थकार कहते हैं कि वे पण्डित भी काल के अपरिणामोपन को विश्वास प्राप्त नहीं करें, जब कि सम्पूर्ण वस्तुयें परिणामी हैं तो काल का अपरिणामीपना नहीं समझा जा सकता है उक्त पंक्ति या गाथाका ऐदम्पर्य यह है कि काल स्वयं परिणमन नहीं करता है, इस विशेषण करके कालमें पुद्गल आदि के समान महत्व आदि परिणतियों का निषेध कर दिया जाता है। यानी पुद्गल की जैसे स्थूल, सूक्ष्म, भेद, आदि परिणतियां होती हैं अथवा जीव की जैसे मतिज्ञान. क्रोध, प्रादि परिणतियां होती हैं वैसी शुद्ध काल द्रव्य की विभाग परिणतियां नहीं होती हैं तथा वह काल भावों को परस्पर में नहीं परिणमाता है, इस दूसरे विशेषण करके भी कालके स्वयं परिणमन कर रहे उन भावोंके प्रधानकर्तापन का प्रतिषेध किया गया है। अर्थात्-परिणाम करने में प्रधान कर्ता वे पदार्थ स्वयं हैं, हां निश्चय काल या व्यवहारकाल साधारण निमित्त हैं, प्रेरक निमित्त नहीं हाँ कालकी कारणता उस उदासीन कारणता या प्रेरक-कारणता के बीच में वर्तरही-सी है, प्रधान कर्ता या प्रेरक कारण काल नहीं है फिर भी उसके परिणाम का हेतुपना यानी परिणामोंका केवल निमित्त कारण काल होजाता है, ऐसा जैन सिद्धान्त का वचन है, तिस कारण सिद्ध होताहै कि वस्तुओं के सम्पूर्ण परिणाम उस निमित्त कारण होरहे काल द्रव्यको वहिरंग हेतु मान कर ही होते हैं अन्यथा यानी बहिरंग निमित्त के विना उन परिणामों का होना बन नहीं सकता है, यह भले प्रकार विश्वासपूर्वक समझ लेना चाहिये। ...
का पुनः क्रिया ? परिणाम का विचार होचुका अब कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि सूत्र में कही गयी क्रिया भला फिर क्या पदार्थ है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर ग्रन्थकार वात्तिकों द्वारा क्रिया के लक्षण और भेदों को कहते हैं।
परिस्पंदात्मको द्रव्यपर्यायः संप्रतीयते। क्रिया देशांतरप्राप्तिहेतुर्गत्यादिभेदभृत् ॥३६॥ प्रयोगविस्रसोत्पादाद्वधा संक्षेपतस्तु सा। प्रयोगजा पुनर्नानोत्क्षेपणादिप्रभेदतः॥४०॥