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पंचम - अध्याय
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होने का प्रसंग आवेगा जैसे कि सर्वथा भिन्न कोई दूसरा पदार्थ इस प्रकृत पदार्थ का परिणाम नहीं है, दूधका परिणाम ईंट नहीं है और मिट्टीका परिणाम दही नहीं है । तथा हम जैन वीजसे अंकुर सर्वथा अभिन्न ही होय ऐसा भी नहीं मानते हैं, यों मानने पर अंकुरके प्रभावका प्रसंग श्रावेगा । वीज से वीज ही होता रहेगा अंकुर भी वीज ही बन जायगा ।
प्रतिवादी यदि यों पूछे कि परिणामी से परिणाम को भिन्न भी नहीं कहते हो और श्राप जैन भिन्न भी नहीं कहते तो फिर आप कैसा क्या कहते हो ? इस प्रश्न पर हम जैनोंका समाधान यह है कि पर्यायार्थिक नयके कथनानुसार वीजसे अंकुरको हम भिन्न मान रहे हैं. प्र कुरकी उत्पत्तिसे पहिले वीज में प्रकुर पर्याय नहीं थी पीछे उपजी अतः वीज पर्यायसे प्रांकुर पर्याय न्यारी है, हां द्रव्यार्थिक नय अनुसार कथन करने से वीज से अंकुर अभिन्न है जो भी पुद्गल द्रव्य वीज रूप परिणत हुआ है उसी पुद्गल द्रव्यकी अंकुर स्वरूपसे परिणति होने वाली है, द्रव्य वह का वही है, इस प्रकार कथंचित् पर्याय दृष्टि से भेद और द्रव्य दृष्टि से अभेद इस तीसरे पक्ष के अनुसरण करने से स्याद्वादियों के यहां दोषों का प्रभाव है, अतः परिणामका प्रभाव नहीं होसका, परिणामकी सिद्धि होजाती है । पहिले सर्वथा भेद और दूसरे सर्वथा श्रभेद इन दो पक्षों से निराले 'कथंचित् भेदाभेद' इस तीसरे पक्ष का प्रालम्वन ले रक्खा है ।
व्यवस्थिताव्यवस्थित दोषात्परिणामाभाव इति चेन्नानेकांतात् । न हि वयमंकुरे वीजं व्यवस्थितमेव व महे विरोधादकुराभावप्रसंगात् । नाध्यव्यवस्थित मेत्रांकुरस्य वीजपरिणामत्वाभावप्रसंगात् पदार्थान्तरपरिणामत्वाभाववत् । किं तर्हि ? स्याद्वीजं व्यवस्थितं स्यादव्यवस्थितमंकुरे व्याकुर्महे । न चैकांतपक्षभावी दाषो ऽनेकांतेष्वस्तीत्युक्तप्राय । स्याद्वादिनां हि वीजशरीरादेरेव वनस्पतिकायिको वीजोंकुरादिः स्वशरीरपरिणामभागभिमतो यथा कललशरीरे मनुयजीवोवु दादिस्वशरीरपरिणामभृदिति न पुरन्यथा सः । तथा सति—
पुनः कोई पण्डित प्रक्षेप करते हैं कि व्यवस्थित और अव्यवस्थित पक्ष में दोष जानने से परिणाम कोई पदार्थ नहीं ठहरता है अर्थात्-वीज का 'कुरपने करके परिणाम होने पर हम पूछते हैं कि अ ंकुर में वीज व्यवस्थित है ? अथवा व्यवस्थित नहीं है ? बताओ' । यदि अंकुर में वीज प्रथम से ही व्यवस्थित है तव तो वीजकी व्यवस्था होजानेके कारण अंकुर का प्रभाव होजायगा, एकत्र वीज और अकुर दोनों अवस्थाओं के एक साथ ठहरे रहनेका विरोध है और यदि अंकुर में वीज अव्यवस्थित माना जायगा तब तो वीज की अंकुररूप से परिणति नहीं होसकेगी । सर्वथा भिन्न हो रहे अव्यवस्थित रूप पदार्थ करके यदि कोई परिगमन करने लगेगा तो जल अग्नि स्वरूप करके अथवा पुद्गल जीवरूपकरके परिणत हो जावेगा जो कि इष्ट नहीं है, अतः जनों के यहां परिणाम पदार्थ का प्रभाव होगया । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि व्यवस्थित, अव्यवस्थित पक्षों में अनेकान्त मान। जा रहा है हम जैन अंकुरमें जीवको व्यवस्थित ही नहीं कह रहे हैं जिससे कि दो अवस्थाओं का विरोध होजाने से प्रकुर के प्रभावका दोष प्रसंग होजाय । तथा अंकुरमें वीजको अव्यवस्थित भी नहीं वखान रहे हैं जिससे कि नौंकुर को वीज के परिणामपनके प्रभाव का प्रसंग होजावे जैसेकि सवथा भिन्न दूसरे पदार्थ का परिणाम उससे सवथा भिन्न काई निराला पदार्थ नहीं होता है, यानो धर्म में धर्म द्रव्य