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अथ पञ्चमोऽध्यायः
ध्वस्त मोहतमाः सर्व (लोका) लोकभासकचिन्महाः । प्रबोधयेन्मनः पद्म श्रीमान्मे जिनभास्करः ॥ १ ॥ ॐ नमो जिनेन्द्राय तुष्टिपुष्टिकर्त्रे
जीव तत्त्वका निरूपण कर चुकने पर अब श्रीउमास्वामी महाराज अजीव तत्त्वका निरूपण करने के लिये पंचम अध्यायके प्रारम्भ में अजीव तत्त्वके भेदोंकी संज्ञाका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्रको कहते हैं
जीवकाया धर्माधर्माकाशपुद् गलाः ॥१॥
धर्म अधर्म आकाश और पुद्गल ये चार पदार्थ अजीव होते हुये काय हैं अर्थात् चेतना गुण से रहित होते हुये प्रदेशप्रचयात्मक ये चार पदार्थ हैं । किमर्थास्य सूत्रस्य प्रवृत्तिरत्रेत्याह ।
कोई शिष्य प्रश्न करता है कि इस सूत्र की प्रवृत्ति किसलिये उमास्वामी महाराजने यहां की है। ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री विद्याननन्द आचार्य वार्तिक द्वारा समाधानको कहते हैं— अथाजीवविभागादिविवादविनिवृत्तये । जीवेत्यादिसूत्रस्य प्रवृत्तिरुपपद्यते ॥१॥
उक्त चार अध्यायों में जीव तत्व का प्ररूपण करने के अनन्तर अब अजीव तत्व के विभाग, लक्षण, आदि में पड़े हुये विवाद की विशेषतया निवृत्ति करने के लिये सूत्रकार द्वारा "अजीव काया" इत्यादि सूत्र की प्रवृत्ति करना युक्त बन जाता है ।
सम्यग्दर्शनविषयभावेन जीवोद्दिष्टे दृष्टेष्टजीवतत्त्वव्याख्यानेऽनन्तरमजीव तत्वव्याख्यानमर्हत्येव, तत्र च लक्षणविभागविशेषलक्षण विप्रतिपत्तौ तद्विनिवृत्यर्थास्य सत्रस्य प्रवृतिर्धतएवान्यथा निःशं कमजीवतत्त्वव्यथानात् ।
"तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " इस सूत्र द्वारा तत्वार्थों में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन बताया है तहां सम्यग्दर्शन के विषयभावरके जीवतत्वका उद्देश कर चुकने पर उक्त चार अध्यायों में देखे जार या युक्तिप्रमाणों द्वारा अभीष्ट होरहे अथवा प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से परीक्षा किये गये