SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम-अध्याय ननु गतिस्थित्युपग्रहौ धर्मस्याधर्मस्य च प्रत्येकमिति कश्चित्, सोपि न स्थितवादी उपकाराविति वचनादपि तत्सिद्धिः गतिरुपकारो धर्मस्य स्थितिरधर्मस्येत्यभिसंबंधचात् । ___ यहाँ कोई पुनः प्रश्न करता है कि 'गतिस्थित्युपग्रही धर्मस्याधर्मस्य च प्रत्येक' गति और स्थिति रूप उपग्रह करना तो प्रत्येक होकर धम और अधर्म का उपकार है, इस प्रकार कोई पण्डित पालाप कर रहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि वह भी व्यवस्थित पदार्थ के कहने की टेब को रखने वाला नहीं है, क्योंकि " उपकारी" इस कथन से भी उस प्रयोजन की सिद्धि होजाती है, गति-स्वरूप उपकार धर्म का और स्थिति-स्वरूप उपकार तो अधर्म का है यों दोनों में दो प्रोरसे सम्बन्ध होजायगा इसके लिये उपग्रह शब्द डालना या प्रत्येक शब्द डालना निष्प्रयोजन है “ गतिस्थित्युपकारी धर्माधर्मयोः" इतना ही सूत्र पर्याप्त है। " तत्किमिदानीयुपग्रहवचनं १ न कर्तव्य । कर्तव्यमेवोपकारशब्देन कार्यसामान्यस्यामिधानात् गतिस्थित्युपग्रहा विति कार्यविशेषकथनात् । तेन धर्माधर्मयोन किंचित्कार्यमस्तीति वदनिवार्यते धर्माधर्मयोरुपकारोस्तीति वचनात् । किं पुनस्तस्कार्यमित्यारेकायां गतिस्थित्युपग्रहावित्युच्यते गतिस्थिती इति तयोस्तदनिर्वय॑त्वात् धर्माधमौं हि न जीवपुद्गलानां गतिस्थिती निर्वर्तयतः । किं तर्हि ? तदनुग्रहावेव । पुनरपि कोई आक्षेप करता है कि तब तो ऐसा अवसर उपस्थित होने पर उपग्रह शब्द क्यों बोला जाता है ? सूत्र में उपग्रह का ग्रहण सो नहीं करना चाहिये यथा-संख्य की प्रतिपत्ति भी उपग्रह शब्द के विना होसकती है जैसे कि अभी आपने प्रतिपादन कर दिया है कि धर्म का उपकार जीव पुद्गलों की गति करा देना और अधर्म का उपकार जीवपुद्गलों की स्थिति करा देना है। अब ग्रन्थकार सिद्धान्त उत्तर कहते हैं कि सूत्र में उपग्रह शब्द का ग्रहण करना ही चाहिये कारण कि उपकार शब्द करके कार्यसामान्य का कथन किया गया है और “ गतिस्थित्युपग्रहो" यों उपग्रह शब्द करके कार्यविशेष का प्ररूपण सूत्रकार द्वारा किया गया है, तिस कारण धर्म और अधर्म का कोई कार्य ही नहीं है , इस प्रकार कह रहे किसी सांख्य या अन्य वादी के मन्तव्य का निवारण कर दिया जाता है क्योंकि धर्म और अधर्म का कुछ न कुछ उपकार अवश्य है, ऐसा सामान्य रूप से कथन किया गया है। इस पर फिर कोई यो प्रश्न करे कि उन धर्म और अधर्म का काय क्या है ? ऐसी आशंका होने पर " गतिस्थित्युपग्रहो" यहां उपग्रह शब्द को डाल कर उद्देश्य दल कह दिया गया है, यानी धर्म और अधर्म के विशेषरूपसे काय गति-स्वरूप उपग्रह और स्थिति-स्वरूप उपग्र: हैं, यदि उपग्रह को नहीं कर · गतिस्थिती" इतना ही कहा जाता तो विशेष कार्यों की प्रतिपत्ति नहीं होसकती थी। जैन सिद्धान्त अनुसार प्रत्येक वस्तु किन्हीं न किन्हीं सामान्य और विशेष कार्यों का प्रति समय सम्पादन करती रहती है, सामान्य के विना विशेष और विशेष के विना सामान्य खरविषाणवत है, अतः गति और स्थिति तो धर्म और अधर्म के विशेष कार्य हैं। यहां सामान्य कार्य उपकार का और विशेष कार्य गति स्थितियों का कोई समय भेद या स्वरूपभेद नहीं है, केवल सामान्य के साथ तदात्मकविशेष और विशेष
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy