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श्लोक-वाति
सिद्ध होजाता है कि गति और स्थितिके प्रधान कर्ता धर्म और अधर्म नहीं हैं। सूत्र में उपकार शब्द का कथन कर देने से यों प्रतिपत्ति को प्रेरक होकर स्वय प्रारम्भ कर रहे जीव और पुद्गलों की उन गति और स्थितियों में केवल अनुग्रह करने की प्रवृत्ति होजाने के कारण धर्म और अधर्म उपकारक हैं।
पुनः शंकाकार अपनी शंका को पुष्ट कर रहा है कि श्री अकलंक देव के मन्तव्य अनुसार यदि कोई यों कह बैठे कि यथासंख्य की निवृत्ति करने के लिये सूत्र में उपग्रह शब्द कह गया है । अर्थात्गति और स्थिति तो धर्म और अधर्म का उपकार है केवल इतना ही कह दिया जाय तो जीवों की गति परिणति करा देना धर्म का उपकार होसकेगा यों पुद्गलों की गति-परिणति धर्म का उपकार नहीं हो सकेगा तथा पुद्गलोंकी स्थिति करा देना धर्मका उपकार बन जायगा जीवोंकी स्थिति करा देना अधर्म का उपकार नहीं होसकेगा, यो संख्याक्रम अनुसार प्रतीति होजायगी उसकी निवृत्तिके लिये उपग्रह शब्द कहा गया है वह व्यर्थ होकर ज्ञापन कर देता है कि यथासंख्य नहीं है ।
शंकाकार कहता है कि यह किसी का कहना भी निस्सार है क्योंकि उस उपग्रह शब्द का सद्भाव होने पर भी उस यथासंख्य की निवृत्ति नहीं होनेपाती है जब कि उपग्रह शब्द के होने पर भी यों कहा जा सकता है कि जीवकी गतिमें अनुग्रह करना धर्म द्रव्यका उपकार है और पुद्गल की स्थितिस्वरूप अनुग्रह करना अधर्म द्रव्यका उपकार है । इस प्रकार उपग्रह शब्दका पद्भाव होने पर भी वह यथासंख्य बनारहता है, निवृत्त नहीं होने पाता है । हाँ एक बात यह है कि जीव और पुद्गल तो बहुत हैं अर्थात् “जीवाश्च" रूपिणः पुद्लाः, एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुलानां, असंख्येयभागादिषु जीवानां, इन सूत्रोंके अनुसार और द्रव्योंकी गणना अनुसार जीव और पुद्गल बहुत हैं धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्यों के अनुसार उन बहतों की समता नहीं होसकती है इस ही कारण यथासंख्यकी निवृत्ति होना सिद्ध होजाता है फिर उस यथासंख्य की निवृत्ति के लिये तो उस उपग्रह शब्द का कथन करना युक्त नहीं है।
भावार्थ-धर्म और अधर्मके समान यदि जोव और पुद्गल भी एक एक द्रव्य होकर दो ही होते तबतो यथासंख्य लागू होता किन्तु जब जोव और पुद्गल अनन्त द्रव्य हैं तो ऐसी दशामें अनन्तों का दो के साथ सामानाधिकरण्य नहीं बनसकता है,अतः जीवोंकी गति धर्मका उपकार और पुद्गलोंकी स्थिति अधर्म का उपकार, यह अर्थ करना ही अलीक है। हां उपग्रह शब्द के नहीं ग्रहण करने पर भी जीव और पूगलों की गति करना धर्मका और जीव या पुद्गलोंकी स्थिति करना अधर्म का उपकार है, यह अर्थ ही सम्पन्न होता है फिर सूकार ने उपग्रह शब्द क्यों दिया ? यहां तक आक्षेप करते हये शंकाकार ने अपने मतको पुष्ट किया है । अब ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि धर्म और प्रधमके साथ यथासंख्यगाते और स्थितिको प्रतिपत्ति होय इसलिये सूत्रकारका गति स्थित्युपग्रहौ,यों उपग्रह शब्दका निरूपण करना व्यवस्थित होजाता है तिस कारण इस समीचान अर्थ को प्रतिपत्ति होजाती है कि गति स्वरूप अनुग्रह करना धर्म का उपकार है और स्थिति रूप अनुग्रह करना फिर अधर्म का उपकार है। भावार्थ--यदि सूत्र में उपग्रह शब्द नहीं डाला जाता तो गति और स्थिति दोनों ही धर्म के उपकार बन बैठते तथा अधर्म के उपकार भी गति और स्थिति दोनों होजाते, अतः यथासंख्य की प्रतिपत्ति कराने के लिये उपग्रह शब्द सार्थक है। श्री अकलंक देव के विचार-अनुसार यथासंख्यकी निवृत्तिके लिये उपमह शब्द का प्रयोग करना बताया साथक नहीं हैं।