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________________ १३४ श्लोक-पातिक द्रव्यस्य देशांतरप्राप्ति-हेतुः परिणामो गतिः, तद्विपरीता स्थितिः । उपरोऽनुग्रहः गति स्थिती एवोपग्रहौ स्वपदार्था वृत्तिन पुनरन्यपदार्था धर्माधर्मावित्यवचनात् । नाप्यन्यतरपदार्था गतिस्थित्युपग्रहाविति द्विवचननिर्देशात् । तस्यां हि सत्यामुपग्रहस्यैकत्वादेकवचनमेव स्यात् । गतिस्थित्योरुपग्रहो गतिस्थित्युपग्रह इति पावसाधनस्योपग्रहशब्द य षष्ठीवृत्तेर्घटनात् । तस्य कर्मसाधनत्वे स्वसदार्थवृत्तेरेवोपपत्तेः गतिस्थिती एवोपगृह्यते इत्युपग्रहो। द्रव्य की प्रकृत देश से देशान्तर में प्राप्ति कराने का हेतु होरहा परिणाम गति कहाजाता है और द्रव्य को उसी देश में ठहराये रखने का कारणभूत होरहा उस गति स्वरूप परिणाम से विनरीत परिणाम तो स्थिति है, इस सूत्र में पड़े हुये उपग्रह शब्द का अर्थ अनुग्रह है, “गतिस्थित्युपग्रहो" शब्द की निरुक्ति नो यों करनी चाहिये प्रथम " गतिश्च स्थितिश्च " यों द्वन्द्व-वृत्ति द्वारा “गतिस्थिती" शब्द बना लिया जाय पश्चात् गति--स्थिती ही स्वरूप जो दो उपग्रह हैं यों कर्यधारय के उपयोगी विग्रह को कर स्वकीयपदों के अर्थ को प्रधान रखने वाली समास वत्ति करली जाय किन्त फिर गतिस्थिती जिनके उपग्रह हैं, ऐसी स्वघटकावयव पदार्थों से अतिरिक्त अन्य पदार्थ को प्रधान करने वाली बहुव्रीहिसमास वृति तो नहीं की जाय, कारण कि "धर्माधर्मों" ऐसा प्रथमान्तरूप सूत्रक र करके नहीं कहा गया है। अर्थात्-गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधमौं " ऐसा होता तब तो जिनके उपग्रह गति और स्थिति हैं वे धर्म और अधर्म हैं, यह अर्थ सुघटित होजाता किन्तु सूत्रकार ने " धर्माधर्मयो: " ऐसा षष्ठयन्त पद दिया है, अतः स्वपदार्थप्रधान समास करना अच्छा है । तथा दो में से किसी एक ही पदार्थ को प्रधान रखने वाली वृत्ति भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि सूत्रकार ने “ गतिस्थित्युपग्रहौ" इस प्रकार प्रथमा के द्विवचनान्त रूप का प्रयोग किया है, अन्यतर पदार्थ को प्रधान रखनेवाली उस वृत्ति के करने पर तो उपग्रह का एकपना होने से एक वचन ही होता। अर्थात्-गति और स्थिति के उपग्रह यों एक ही उत्तर पदार्थ को प्रधान करने वाली षष्ठी तत्पुरुषवृत्ति की जाती तो उपग्रह भाव का एकपना होने से “ गतिस्थित्युपग्रहः " ऐसा एकवचन का कथन किया जाता । भाव पदार्थ को दो या बहुत प्रकार करके कथन करना अनुचित है । गति और स्थिति का उपग्रह करना गतिस्थित्यु५ ग्रह है, यों उप उपसर्गपूर्वक ग्रह धातु से भाव में प्रप् प्रत्यय कर साधे गये उपग्रह शब्द की षष्ठी समास वृत्ति से घटना होसकती थी। द्विवचन होने के कारण उस उपग्रह शब्द को यदि कर्म में अप प्रत्यय कर साधा जायगा तब तो अपने घटकावयव पदार्थों को प्रधान रखने वाली कर्मधारय वृत्ति से ही " गतिस्थित्यूपग्रहौ" शब्द की सिद्धि होसकती है जबकि गति और स्थिति ही तो अनुग्रह प्राप्त किये जारहे हैं, इस कारण कर्म में अप् प्रत्यय करके द्विवचनान्त " उपग्रहो" शब्द ठीक सध जाता है। न च कर्मसाधनत्त्वेप्युपग्रहशब्दस्योपकारशब्देन सह सामानाधिकरण्यानुपपातः गतिस्थित्युपग्रही उपकार इति उपकारशब्दस्यापि कर्मसाधनत्वात् । न चैवमुपकारशब्दस्य द्विवचनप्रसंगः सामान्योपक्रमादेकवचनोपपत्तेः पुनर्विशेषोपक्रमेपि तदपरित्यागात् 'साधोः कार्य तपाश्रुते" इत्यादिवत् ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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