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पंचम-अध्याय
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विना हुई ही स्थिति को स्वाभाविक स्वीकार करते हैं । प्राचार्य कहते हैं कि यह तो उन दशिनिकों का अपनी रूचि अनुसार मनमानी विरचित किये दर्शन ( सिद्धान्त ) का केवल दिखलाना है, क्योंकि इसमें नियम करने वाले हेतुका अभाव है यदि व्यवहार नयसे उत्पत्ति का कारण इष्ट किया जाता है, तो स्थिति और विनाशका भी कारणों--जन्यपना अनिवार्य होगा और परमार्थ रूप से नाश या स्थिति को वैस्रसिक मानोगे तो उत्पाद को भी कारण-रहित मानना आवश्यक होगा । अर्द्धजरतीय न्याय का पचड़ा लगाना अनुचित है।
ततो नास्ति निश्चयनयाद्भावानामाधाराधेयभावः सर्वथा विर्चायमाणस्यायोगात्कार्यकारणभाववादिति स्याल्लोकाकाशे धर्मादीनामवगाहः स्यादनवगाह इति स्याद्वादप्रसिद्धिः।
तिस कारण से सिद्ध होता है कि निश्चय नय से पदार्थों का “ आधार आधेयभाव " नहीं है, क्योंकि परमार्थ रूप से विचार किये जारहे आधार प्राधेयपन का सभी प्रकारों से प्रयोग है जैसे कि निश्चय नय अनुसार कार्यकारणभाव की घटना नहीं होसकती है, न कोई किसी को बनाता है, और न कोई कित्ती से बनता है, कोई किसी का वाध्य या वाधक नहीं है, प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव, गुरुशिष्यभाव, जन्य-जनकभाव, ये सब व्यवहारनय अनुसार हैं । इस प्रकार स्यात् यानी कथंचित् व्यवहार नयकी अपेक्षा लोकाकाश में धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों का अवगाह होरहा है और कथंचित् निश्चय नय के विचार अनुसार लोशाकाश में धर्म आदिकों का प्रवगाह नहीं है, इस प्रकार अजेय स्याद्वाद सिद्धान्त की सम्पूर्ण जगत् में प्रसिद्धि होरही है।
यहां तक द्रव्यों के अवगाह देने और प्राप्त करने का प्रकरण समाप्त हुआ।
अग्रिम सूत्र का अवतरण यों है कि यहां पर कोई यों प्राशका कर बैठे कि धर्म प्रादिक छहों द्रव्य एक स्थान में प्राकाश-प्रदेशों पर यदि विराज रहे हैं तब तो धर्म आदिकों का प्रदेशों के परस्पर प्रवेश होजाने से एकपना प्राप्त होजाता है ? इसका उत्तर यह है कि परस्पर प्रत्यन्त संश्लेष होने पर भी कोई द्रव्य अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है। इस पर प्राशंका करने वाला कहता कि यदि इस प्रकार धर्म आदिकों का स्वभाव न्यारा न्यारा है तो वह स्वभाव--भेद ही अति शीघ्र क्यों नहीं कह दिया जाता है ? इस प्रकार संकेत करने पर ही मानों सूत्रकार महाराज अगले सूत्र को कहते हैं
गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः॥ १७॥
जीव और पुद्गलों का गति-स्वरूप उपग्रह होना धर्म द्रव्य का उपकार है तथा जीव और पुद्गलों का ( अथवा सम्पूर्ण द्रव्यों का ) स्थिति-स्वरूप उपग्रह होना अधर्म द्रव्य का उपकार है। भावार्थ-द्रव्यों की गति कराने में उदासीन कारण धर्म द्रव्य है और स्थिति कराने में उदासीन कारण अधर्म द्रव्य है।