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________________ पंचम-अध्याय नहीं देता है और न दूसरे का लेता है । यदि स्वरूपों के लेने देने का अनुक्रम होता तो जीव जड़ और जड़ चेतन द्रव्य बन बैठता और यों कितने ही द्रव्यों का नाश कभी का होचुका होता किन्तु ऐसा नहीं है " नवासतो जन्म सतो न नाश:" यह श्री समन्त--भद्राचार्यका वाक्य है, अत: निश्चय नय अनुसार आधार प्राधेयभाव नहीं है । हाँ प्रमाण दृष्टि और व्यवहार नय से प्राधार प्राधेय व्यवस्था है। स्वयं स्थास्नोरन्येन स्थितिकरण ननर्थकं स्वयमस्थास्नोः स्थितिकरणमसंभाव्यं शशविषाणवत् । शक्तिरूपेण स्वयं स्थान शीलस्यान्येन व्यक्तिरूपतया स्थितिः क्रियत इति चेत्तस्यापि व्यक्तिरूण स्थितिस्तत्म्वभावस्य वा क्रियेत । न च तावत्तत्स्वभावस्य वैयर्थ्यात् करणव्यापारस्य, नाप्यतत्स्वभावस्य खपुष्पवत्करणानुपपत्तेः। निश्चयनय से आश्रय आश्रयी भाव नहीं है इस बातको ग्रन्थकार और भी पुष्ट करते हैं । कि जो स्वयं अपनी स्थिति रखने के स्वभाव को धारे हुये है, उसकी अन्य पदार्थ करके स्थिति का किया जाना व्यर्थ है, क्योंकि वह तो अपनी स्थिति में किसी अन्य की प्रपेक्षा नहीं रखता है, हाँ जो स्वयं स्थिति स्वभाव को धारे हुये नहीं हैं । शशा के विषाण समान उसकी स्थिति का किया जाना असम्भव है, भावार्थ-"सत्पुत्रश्चेत् रक्षितधनेन किं। कुपुत्रश्चेत् संचितधनेन किं" सुपुत्र है तो धन एकत्रित करने से क्या लाभ ? और कुपुत्र है तो भी धन इकठ्ठा करने से क्या प्रयोजन सधेगा यानी कुछ भी नहीं। इसी प्रकार जो पदार्थ अनादि काल से अपने स्वरूप में स्थित है उसकी लोकाकाश या प्रश्व आदि करके स्थिति किया जाना व्यर्थ है। और जो खरविषाण के समान स्वयं स्थिति-शील ही नहीं है, सहस्रों अधिकरणों के जुटाने पर भी कहीं उसकी स्थिति नहीं की जा सकती है। यदि व्यवहार नय का पक्ष लेने वाले यों कहें कि जो पदार्थ शक्तिरूप करके स्वयं स्थिति स्वभाववाला है। अन्य अधिकरणों करके व्यक्तिरूप से उसकी स्थिति कर दी जाती है, यानी अप्रकट रूप से पदार्थ स्वयं स्थिति-शील है, अपने ही आप में रहता है । हां प्रकट रूप से वह अन्य आश्रयों करके अपने ऊपर धर लिया जाता है, यों कहने पर तो ग्रन्थकार पूछते हैं कि उस शक्तिरूप से स्थितिशील पदार्थ की भी जो दृश्य होरही प्रकट स्वरूप स्थिति करदी जाती है, क्या वह व्यक्ति स्थिति स्वभाव वाले की व्यक्त स्थिति की जायगी ? अथवा व्यक्त स्थिति स्वभाव से रहित भी पदार्थ को कहीं पर बैठाया जा सकता है। बतायो ? प्रथम पक्ष अनुसार उस व्यक्त स्थिति स्वभाव वाले पदार्थका तो अन्य करके स्थापन करने का व्यापार व्यर्थ है जैसे कि सूर्य को दूसरे करके प्रकाशित करना व्यर्थ है, पौर द्वितीय पक्ष अनुसार उस प्रकट स्थिति स्वभाव से रीते पदाथ का भी आकाशपुष्प समान स्थिति करा देना बन नहीं सकता है. असम्भव है, अत: कोई पदार्थ भी किसी अन्य पदार्थ पर स्थित नहीं रहता है " क्व भवान् ? प्रात्मनि " आप कहां हैं ? इसका सब से बढ़िया उत्तर यह है कि हम अपने ही स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं, सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं स्थितिशील हैं। कथमेवमुत्पत्तिविनाशयोः करणं कस्यचित्तत्स्वभावस्यातत्स्वभावस्य वा केनचितत्करणे स्थितिपक्षोक्तदोषानुषंगादिति चेन कथमपि तनिश्चयनयात्सर्वस्य विस्रसोत्पादव्ययधौम्यव्यवस्थितः । व्यवहारनयादेवोत्पादादीनां सहेतुकत्वप्रतीतेः।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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