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________________ ४७५ नहीं हैं [ १३ । मिथ्यादर्शन आदिका भी योगमें अनु जीव अधिकरणके १०८ भेद ४७४ प्रवेश हो जाता है ४३८ कषाय स्थानकी अपेक्षा जीवाधिकरणके सूत्र ३ ४३९-४४५ असंख्यात भेद हैं सम्यग्दर्शन आदिसे अनुरंजित योग शुभ सत्र ९ ४७७-४८४ है और मिथ्यादर्शन आदिसे अनुरंजित निर्वतना आदिके भेदोंका कथन ४८१ योग अशभ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन विशुद्ध सत्र १० ४८४-४९४ परिणाम और मिथ्यात्व संक्लेश परि प्रदोष आदिका स्वरूप ४४० ४८५ णाम है प्रदोष आदिके द्वारा ज्ञानावरण कर्ममें विशुद्ध परिणामोंसे शुभ फलवाले पुद्गलों अनुभाग विशेष बँधता है ४८७ का और संक्लेश परिणामोंसे अशुभफल सत्र ११ ४९४-५०७ वाले पुद्गलोंका आस्रव होता है। ४४४ दुःख शोक आदिका स्वरूप ४६५ योग संख्यात, असंख्यात प्रकार तथा अनन्त प्रकारका भी ४४५ 'वेद्यका' अर्थ ५०२ सत्र ४ ४४६-४५२ यम, नियम, कायक्लेश आदि दुख रूप कषाय सहित जीवोंके साम्परायिक कर्मों ५०५ का और कषाय रहित जीवोंके ईर्यापथ सूत्र १२ ५०७-५१० कर्मोंका आस्रव होता है .४४६ भूत व्रती आदिका स्वरूप ५०७-५०८ कषायका लक्षण और फल ४४६ जिस जिस जातिके अनेक सुख दुख है साम्परायका निरुक्ति अर्थ और कार्य ४४७ उतनी ही असंख्य जातियोंके सवेद्य और ईर्यापथका लक्षण व कार्य ४४८ असद्वेद्य कर्म हैं। क्योंकि विशेष विशेष अकषाय जीवके भी नोकर्ममें स्थिति कार्योकी उत्पत्ति विशेष कारणोंके बिना अनुभाग पड़ता है नहीं हो सकती सकषाय जीव परतंत्र है और अकषाय सूत्र ५११-५१३ जीव परतंत्र नहीं है किन्तु अघातिया केवली श्रुत संघ आदिका तथा आवरणका . कर्मोदय की परतंत्रता भी पूर्वकषायका स्वरूप ४४८-४४९ फल है ५११ सूत्र ५ ४५३-४६३ सूत्र १४ ५१३-५१४ साम्परायिक-आस्रवके भेद द्रव्य आदि निमित्तके वशसे कर्म-परिपाकको सम्यक्त्वादि २५ क्रियाओंका स्वरूप ४५५-४५९ उदय कहते हैं ५१३ सत्र ६ ४६३-४६९ सूत्र १५ ५१५-५१६ तीब्र आदि भावोंका अर्थ ४६४-४६९ बहु, आरंभ, परिग्रहका स्वरूप ५१५ वीर्यका पृथक ग्रहण करनेका कारण ---४६६ सूत्र १६ द्रव्य कर्मसे भाव कर्म और भाव कर्मसे ---४६९ मायाका स्वरूप ५१६ द्रव्य कर्म होनेपर भी अन्योन्याश्रय दोष सूत्र १७ ५१७-५१८ नहीं है अल्प आरम्भ आदिका स्वरूप ५१८ सत्र ७ ४६९-४७१ जीव और अजीवमें दो अधिकरण है सूत्र १८ ५१८-५१९ सत्र ८ ४७१-४७७ उपदेशके बिना स्वभावसे कोमलता मनुसंरम्भ आदिका स्वरूप ४७२, व्यायु व देवायुका कारण है ५१९ ४४८ ५१०
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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