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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
एक पदार्थका एक ही समय अनेक व्यक्तियोंमें व्यापक होकर वर्तना हम नहीं मानते हैं, जिससे कि उस सादृश्यका अपने आधार व्यक्तियों में एकदेश करके वर्तना माननेपर सावयवपना प्राप्त हो जाय और फिर उन अपने मित्र पूर्व अवयवोंमें भी दूसरे अपने एक देशोंसे वृत्ति माननेकी आकांक्षा बढती रहनेसे अनवस्था दोष हो जाता तथा जिस कारणसे कि प्रत्येक आश्रयमें सदृशपरिणामरूप सामान्यकी परिपूर्णरूपसे वृत्ति हो चुकनेपर अन्य व्यक्तियोंको सामान्यरहितपनेका प्रसंग होता । क्योंकि एक ही व्यक्तिमें पूर्ण स्वकीय अंशों करके वह सामान्य परिसमाप्त होकर वर्त चुका है । उसका बालाग्र भी अवशेष नहीं बचा है । तथा वैशेषिकोंके विचार अनुसार उस सादृश्यरूप सामान्यको सर्वगतपना हो जानेसे आश्रय व्यक्तियोंसे रीते बीचके अन्तरालमें सामान्यको अपना ज्ञान करा देनेपनकी आपत्ति आवेगी, अन्यथा यानी अन्तरालमें वह सामान्य ठहर रहा भी यदि अपना ज्ञान नहीं करा पाता है तब तो व्यक्ति देशोंमें ज्ञानका कर्त्तापन और अन्तरालमें ज्ञानका अकर्त्तापन इन परस्पर विरुद्ध दो धर्मोका युगपत् आक्रमण हो जानेसे एक पदार्थमें अबस्थान मानना पडेगा, जो कि विरोध दोषकी जड है । सर्वथा नित्य हो रहे सामान्यका अपनी आश्रय व्यक्तियोंके देशमें प्रकट होना माना जाय और उन व्यक्तियोंके दस हाथ, सौ हाथ, दश कोस, पांचसौ कोस मध्यवर्ती अन्तराल देशमें नित्य सादृश्यको प्रकट हुआ न माना जाय तब ते उस सामान्यके अभिव्यक्त और उससे न्यारे अनभिव्यक्त इन दो विरुद्ध आकारोंका प्रसंग आता है । सर्वथा कूटस्थ नित्य पदार्थके अर्थक्रिया होनेका विरोध है । वैयधिकरण्य, संशय, आदिक दोषोंका प्रसंग भी जैनोंके ऊपर तभी लागू होता, अन्यथा नहीं । बात यह है कि सर्वथा भेदवादियोंके ऊपर लागू होनेवाले दोष कथंचित् पक्षका आदर करनेवाले हम स्याद्वादियोंके ऊपर नहीं आते हैं । ऐसी दशामें प्रत्यक्षज्ञानके विषय हो रहे सादृश्यरूप सामान्यको जाननेवाली प्रतीतिका कोई बाधकप्रमाण नहीं है, जिससे कि वह अभ्रान्त सिद्ध न होय । अतः सिद्ध हुआ कि विशेषके समान एक एक व्यक्तिमें तदात्मक हो रहा सदृश परिणाम स्पष्ट जाना जा रहा है।
ननु च सदृशपरिणामोपि प्रतिव्यक्तिनियते स्याद्वादिनाभ्युपगम्यमाने तद्वत्त्वापत्तिरावश्यकी तस्यां च सत्यां स्वसमानपरिणामेष्वप्येकैकव्यक्तिनिष्ठेषु समानप्रत्ययोत्पत्तेः सदृशपरिणामांतरानुषंगादनवस्था तेषु समानपरिणामांतरमंतरेण समानप्रत्ययोत्पत्तौ खंडादिव्यक्तिष्वपि समानप्रत्ययोत्पत्तिस्तमंतरेण स्यात्ततः सदृशपरिणामकल्पनमयुक्तमेवेति कश्चित् । तस्यापि विसदृशपरिणामकल्पनानुपपत्तिरेतदोषानुषंगात् । वैसादृश्येष्वपि हि प्रतिव्यक्तिनियतेषु बहुषु विसदृशप्रत्ययोपजननाद्वसदृशांतरकल्पनायामनवस्थानमवश्यंभावि तेषु वैसादृश्यांतरमंतरेण विसदृशप्रत्ययोत्पत्तौ सर्वत्र वैसादृश्यकल्पनमनर्थकं तेन विनापि विसदृशप्रत्ययसिद्धेरिति कथं विसदृशपरिणामे कल्पनोपपद्येत ।