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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः देशसे वर्तेगा तब तो सावयव हो जायगा जैसे कि अनेक खम्मों या टोढोंपर छप्पर लादनेके लिये रखा हुआ बांस एक एक देशसे ठहरता सन्ता सावयव हो रहा है । सदृश परिणाममें गांठके पहिलेसे यदि निज अवयव होंगे तभी तो वह अपने एक एक भागसे अनेकोंमें वर्त जायगा । तथा उन पहिलेको निज अवयवोंमें भी वह सदृश परिणाम दूसरे अपने एक एक देशोंसे वर्तेगा और पुनः अपने उन भागोंमें तीसरे निज भागोंसे ठहरेगा । कहीं भी दूरतक आकांक्षाकी शान्ति न होनेसे अनवस्था हो जायगी तथा अनेकोंमें रहनेवाले सादृश्यको यदि प्रत्येकमें ही परिपूर्ण रूपसे ठहरा दिया जायगा तो अन्य व्यक्तियोंको सादृश्यसे रहितपनेका प्रसंग होगा। क्योंक एक ही व्यक्तिमें पूर्ण रूपसे सादृश्य भर चुका है फिर भी प्रत्येक सदृश पदार्थमें यदि परिपूर्ण रूपसे सादृश्यकी वृत्ति मानी जायगी तो सादृश्य अनेक हो जायेंगे तथा यदि सादृश्यको सर्वगत माना जायगा तो न्यारे न्यारे स्थानोंपर धरी हुयीं सदृश व्यक्तियोंके मध्यवर्ती अन्तरालमें ठहर रहे सादृश्यको अपना ज्ञान करा देनेका प्रसंग आवेगा जैसे कि यहां से वहांतक दो मनुष्यों के कन्धोंपर रखी हुयी पालकी मध्यमें भी अपना ज्ञान कराती है । अन्यथा व्यक्तियोंमें ज्ञान कराना और अन्तरालमें ज्ञान न कराना ये दो विरुद्ध धर्म एक सादृश्यमें मानने पडेंगे । एकमें तो दो विरुद्ध धर्म ठहरते नहीं हैं । सादृश्यको नित्य माननेपर भी व्यक्ति देशमें अभिव्यक्ती और रीते स्थान अन्तरालमें अनाभिव्यक्ति इस ढंगसे विरुद्ध धर्मोका समावेश हो जानेसे फिर भी विरोध दोष आता है। कहे जाचुके अनवस्था या विरोध दोषोंके समान संकर, व्यतिकर, आदिक दोष भी जैनोंके सादृश्यमें लग बैठेंगे, अब आचार्य कहते हैं कि बौद्धोंको इस प्रकार हमारे माने गये सादृश्यमें दूषणं नहीं उठाने चाहिये क्योंकि " नित्यमेकमनेकानुगतं सामान्यं " वैशेषिकों द्वारा माने गये एक होकर अनेक व्यक्तियोंमें व्यापनेवाले सामान्य (जाति ) में वे दूषण आते हैं ( विषयत्वं सप्तम्यर्थः ) हमारे सादृश्यमें नहीं। हम जैन उस सदृशपरिणामको एक ही कालमें अनेक व्यक्तियोंमें व्यापनेवाला नहीं स्वीकार करते हैं, उपचारके अतिरिक्त अर्थात्वैशेषिक जैसे त्रित्व चतुष्टव आदिक संख्याकी समयवायसम्बन्धसे एक ही व्यक्तिमें वृत्ति मानते हैं। पर्याप्त सम्बधकी न्यारी बात है, उसी प्रकार हम जैन भी सदृशपरिणामको एक कालमें एक ही व्यक्तिमें ठहरता हुआ मानते ह । वस्तुभूत धर्म एक वस्तुमें ही ठहरते हैं । अनन्ताशनन्त वस्तुओंमेंसे किन्हीं भी दो तीन आदि वस्तुओंका द्रव्यरूपसे साझा नहीं है। कल्पना या व्यवहारसे भले ही सादृशक दो, तीन, चार आदि पदार्थीका धर्म कह दिया जाय, कोई तुमको रोकता नहीं । अपने अपने नियत हो रहे अनन्तानन्त अंशोंमें तदात्मक होकर व्याप रही वस्तु कथंचित् विशेष रूप ही है। कोई भी वस्तु किसीके भी रोम मात्रको स्वायत्त नहीं कर सकती है । नैयायिकोंके अभिमत सामान्यमें उक्त दोष अवश्य आते हैं, अवयवोंमें अवयवीकी वृत्ति या व्यक्तियोंमें जातिकी वृत्तिके विकल्प उठा कर नैयायिकोंके सिद्धान्तका निराकरण किया जा सकता है । हम जैनोंके यहां माने गये अवयवी या सादृश्य परिणामस्वरूप सामान्यमें ये दोष नहीं आते हैं। सर्वथा 10
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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