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________________ ६७० तत्त्वार्थश्लोकवातिक __ वे जन्म आदिक छऊ विवतंभावों के विकार हैं। अत: भावपदार्थ माने गये आत्मा में उनके होने का कोई विरोध नहीं है । जन्म आदिक से रहित होरहे इस आत्मा की आजतक भी प्रतीति नही होती है । अतः जन्म आदिको धारनेवाले आत्मा के जानने में भ्रान्ति होनेकी असिद्धि है । देवदत्त जन्म लेता है, वह जिनदत्त आनन्द पूर्वक रहता है, भोजन करता है, मोटा होता है, देवदत्त लट जाता है, देवदत्त मर जाता है, इन सच्चे ज्ञानों में भला भ्रान्ति होने की कौनसी बात है ? विपरीत रीतिओंको गढकर तुमने तो अन्धेर नगरी समझरखी है। विकारी पुरुषः सत्त्वाबहुधानकवत्तव । सर्वथार्थक्रियाहानेरन्यथा सत्त्वहानितः ॥ ११ ॥ पुरुष (पक्ष) विकरों का धारी हैं (साध्यदल) सत् होनेसे ( हेतु ) प्रधानके समान (अन्वयदृष्टान्त) । अर्थात्-तुम सांख्यों को प्रकृति के सामन पुरुष भी सत् होने से विकार वाला मानना पडेगा । अन्यथा यानी आत्मा में विकार नहीं मानने पर तुम्हारे यहाँ सभी प्रकार अर्थक्रिया होने की हानि हो जावेगी और अर्थक्रिया की हानि हो जानेसे उसके व्याप्य होरहे सत्त्वकी भी हानि हो जावेगी। ऐसी दशामें अश्वविषाणके समान आत्मा असत् पदार्थ हो जाता है। यया हि प्रधानं भावस्तथात्मापि सन्नभ्युपगंतव्यः । सत्त्वं चार्थक्रियया व्याप्तं तदमावे खपुष्पवत्सत्त्वानुपपत्तेः । सा चार्थक्रिया क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्ता, तद्विरहेर्थक्रियाविरहात्तद्वत् । ते चक्रमयोगपद्ये विकारित्वेन व्याप्ते, जन्मादिविकाराभावे क्रमाऽक्रमविरोधात्ततः सत्त्वमभ्युपगच्छता पुरुषे जन्मादिविकारोभ्युपगन्तव्योन्यथा व्याप्यव्यापकानुपलब्धेरात्मनोऽसत्त्वप्रसक्तरित्युक्त पायं। जिस ही प्रकार प्रधान " सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः " भावपदार्थ है, उसी प्रकार आत्मा भी सत् पदार्थ स्वीकार करलेना चाहिये और सत्त्व तो अर्थक्रिया करके व्याप्त होरहा है। क्योंकि उस अर्थक्रियाके नहीं होने पर आकाशकुसुमके समान किसी का भी सत्पना नहीं सिद्ध होपाता है तथा वह अर्थक्रिया भी क्रम और योगपद्य के साथ व्याप्ति को रख रही है यानी कोई भी अर्थक्रिया होगी वह क्रम से या युगपद ही होसकेगी। उन क्रम और योगपद्य के विना अर्थक्रिया होने का अभाव है, जैसे कि उस आकाशपुष्प में क्रम यौगपद्योंके न होने से कुछ भी अर्थक्रिया नहीं होपाती है और वे क्रमयोगपद्य भी विकारसहितपन के साथ व्याप्त होरहे प्रतीत हैं । क्योंकि जन्म, अस्तित्व,आदि विकारों के नहीं होनेपर क्रम या अक्रम से कुछ भी होने का विरोध है । तिस कारण आत्मा में सत्त्वधर्म को चाहने वाले कापिलों करके जन्म आदि विकार होना अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिये । अन्यथा व्याप्य (के) व्यापकोंकी अनुपलब्धि होजाने से आत्मा के असत्त्व का प्रसंग होजावेगा, इस अनुकूल तर्कका हम कई बार पहिले प्रकरणों में निरूपण करचुके हैं। सत्त्वका व्यापक अर्थक्रिया होना है तथा अर्थक्रिया का व्यापक क्रम और योगपद्य है तथा उन क्रमयोगपद्योंका व्यापक विकारसहितपना है। जन्म आदि
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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