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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ६६९ इन अस्तित्व आदि विकारोंके मध्य में केवल अस्तित्व को हो जीव पदार्थ धारते हैं अन्य पांच प्रकार जन्म, परिणति, वृद्धि, आदि विकारों को नहीं प्राप्त होते हैं। क्योंकि वे आत्म पदार्थ एकान्तरूपसे कूटस्थवत् नित्य हैं अतः जीवात्माओंका स्वकीयरूपकरके सर्वदा अस्तिपन ही एक धर्म बन सकता है | आचार्य कहते हैं कि कूटस्थवादियों का वह कहना समीचीन नहीं है । क्योंकि बालक, बालिकाओंतकको उन जीवों के जन्म, वृद्धि, होने आदिका दर्शन होरहा है । जब कि मनुष्य, पशु, पक्षी, आदि प्राणियों के बालकपन, युवापन, वृद्धपन, आदि अवस्थाओं द्वारा जन्म विपरिणाम, वृद्धि, आदि विकार होरहे प्रतीत होते हैं तो इसी प्रकार शुद्ध परमात्मा मुक्त आत्माओं के भी मुक्तपने, सिद्धपने स्वात्मनिष्ठा, अगुरुरुत्रुत्व आदि धर्मों करके वे जन्म आदि सम्भव रहे हैं । अर्थात् - चौदहमे गुणस्थानके अन्त में मुक्त जीव उजते हैं । वे सा शुद्ध चिदानन्द, अवस्थाद्वारा आत्मलाभ ( अस्तित्व ) करते रहते हैं । सिद्धों के सम्पूर्ण गुणों म परिणाम होते रहते हैं । अगुरुलत्रु गुणके द्वारा हानि, वृद्धियां भी कतिपय गुणों की पर्यायों म हो रही हैं । संसारीपन, कर्मसम्बन्ध ऐन्द्रियकज्ञान, कषायें आदिका नाश हो चुका है । अथवा उत्तर समय में पूर्व परिणतियों का विनाश हो रहा है। बात यह कि जो पदार्थ उत्पाद, व्यय, धौव्य, इनसे युक्त हो रहा सत् है । उसमें जन्म आदि छऊ विकार सुलमतया सम्भत्र जाते हैं । इस कारण कूटस्थवादी पण्डितों का जीवों के जन्म, अस्तिपन, आदि विकारोंसे रहितपनका निरूपण करना लोकप्रसिद्ध और शास्त्रप्रसिद्ध प्रतीतियों से विरुद्ध है । जन्मादयः प्रधानस्य विकाराः परिणामिनः । तत्संसर्गात्प्रतीयते भ्रांतेः पुंसीति चैन्न वै ॥ ९ ॥ यहां कपिल मतानुयायियों का पूर्वपक्ष है कि परिणामों के धारी प्रधानके विकार जन्म आदिक हैं । उस प्रकृतिका संसर्ग हो जाने से भ्रान्त ज्ञानद्वारा पुरुष में जन्म आदि प्रतीत हो जाते हैं। भावार्थ सांख्यों के यहां प्रकृति के विकारों का होना अभीष्ट किया है। कूटस्थ, नित्य, अपरिणामी, आत्मा कोई जन्म आदि विकार नहीं होते हैं । जपाकुसुमकी ललाई जैसे स्फटिकमें प्रतिभास जाती है उसी प्रकार भ्रान्ति के वश संसारी जीवोंको वे जन्मादिक विकार आत्मामें हो रहे दीख जाते हैं 1 तस्मात् तत्संयोगादचेतनं चेतनादिवलिङगम् । गुण कर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीन: (सांख्यकारिका ) | ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो कथमपि नहीं कहना क्योंकि जब वे पुरुष में निश्चितरूपसे हुये प्रतीत किये जाते हैं, आत्मामें हो रहे जन्म आदि विकारों के दर्शकों को भ्रान्त कहने का तुमको कोई अधिकार नहीं हैं । सम्यग्ज्ञानियों को मिथ्याज्ञानी कहने वाला स्वयं अनन्त भ्रम में पडा हुआ है । " तेषां भावविकारत्वादात्मन्यप्यविरोधतः । जन्मादिरहितस्यास्याप्रतीतेत्यसिद्धितः ॥ १० ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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