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तत्वापंचिन्तामणिः
करके तुपने उस हमारे अभीष्ट पौद्गलिक कर्मपिण्डको ही कह दिया है । केवल नाममें ही विवाद रहा अर्थ में कोई टण्टा नहीं है।
परापरस्थितिवचनसामर्थ्यात् मध्यमानेकविधा रिपतिदेवनारकाणां तियङ्मनुष्याणामिव समाज्या । सा च कर्मचित्र्यसिद्धि प्राप्य व्यवतिष्ठते ततः कर्मविश्यमनुमीयते । स्थितिवंचियसिद्धेरन्ययानुपपत्तेः । कर्मवैचित्र्याभावेपि घटादीनां स्थितिवंचित्र्यदर्शनादसिद्धान्ययानुपपत्तिरिति येभ्यमन्यंत तेऽनभिज्ञा एव, घटानामपि विचित्रायाः स्थितेस्तदुपभोक्तृप्राणिकम भिविचित्र निर्वर्तनात्, कुंमकारादिदृष्टतत्कारणानां व्यभिचारात् । अदृष्टकारणानपेक्षित्वे तदघटनात् । समानकुंमकारादिकारणानां समानकालजन्मनां सदृशक्षेत्राणां समानकारणानां च घटादीनां समानकालस्थितिप्रसंगात्।
उक्त चार वार्तिकोंका भाष्य यों है कि सूत्रकारद्वारा उत्कृष्ट, जघन्य स्थितियों के प्रतिपादक सूत्रों के कयन कर देने की सामर्यसे तिच, और मनुष्योंके समान देव नारकियोंकी भी अनेक प्रकार मध्यम स्थितियों को सम्मावना कर लेनी चाहिये। तथा वे उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य, स्थितियां तो कर्मों को विचित्रता अनुसार सिद्धिको प्राप्त होकर व्यवस्थित हो रहीं हैं। तिन विचित्र स्थितियोंमे कर्मों की विचित्रताका अनुमान कर लिया जाता है। अर्थात्-योग और कषायको मिश्रपरिणति हो रही लेश्याओं तथा अन्य कर्मों के अनुसार जीवोंकी अनेक प्रकार आयुष्य स्थितियां बन जाती हैं। कार्यहेतु धूमसे जैसे कारणभूत अग्नि साध्यका अनुमान कर लिया जाता है, उसी प्रकार विचित्र स्थितियोंके कारणभूत पौद्गलिक कर्मोंको विचित्रताका कायंभून आयुष्य विशेषों करके अनुमान कर लिया गया है। अविनामावो एक दृश्यसे दूसरे अदृश्य पदार्थका अनुमान हो जाना प्रसिद्ध है। स्थितियों को विचित्रताकी सिद्धि हो जाना अन्यथा यानी कर्मों को विचित्रताकी सिद्धि विना नहीं बन पाता। जो भी कोई वादीयों दोष देते हये अभिमान कर बैठे हैं कि कर्मों को विचित्रताके नहीं होने पर भी घट आदि जड पदार्थों की स्थितिओं का विचित्रपना देखा जाता है तो जीवों के भी अदृष्ट कर्मों की कल्पना क्यों की जाती है ? अत: आपकी अन्यथानपत्ति असिद्ध हो गई। व्यभिचार दोष उपस्थित हआ। स्थितिकी विचित्रता होनेर भी घटादि पदार्थों में कर्मों को विचित्रता नहीं पायी जाती है। आचार्य कहते हैं कि वे कुचोद्य करनेवाले वादी अशिक्षित ही हैं। क्योंकि घट पट आदिकोंकी भी विचित्र स्थितियां उनके उपभोक्ता प्राणियों के विचित्र कर्मोंकरके बनायी जाती हैं। कुंमकार अवा, मट्टी आदि देखे जा रहे उनके कारणोंका व्यभिचार हो रहा है । यदि कोरे दृष्ट कारणोंके ही अधीन माने जा रहे घटा दकोंको अदृष्ट कारणोंकी अपेक्षा नहीं रखनेवालापन माना जायगा तो विचित्र ढंगोंसे ठहरना रूप उन नानास्थितिओंकी घटना नहीं हो सकती है। जिन घटोंके कुम्भकार आदि कारण समान हैं और जिन घटोंका समान काल में जन्म भी हो रहा है, तथा जिन कतिपय घटोंका क्षेत्र भी सदृश है, एवं चक्र' अग्नि आदि अन्य कारण भी जिनके समान हैं, उन घट आदिकोंकी समान कालतक ही स्थिति