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तत्त्वार्थश्लोकवातिके
सानत्कुमारमाहंद्रप्रभृतीनामनंतरा । यथा तथा द्वितीयादिपृथिवीषु निवेदिता ॥१॥ नारकाणां च संक्षेपादत्रैव तदनंतस॥
जिस प्रकार उपरले सूत्रमें निचले देवोंकी अव्यवहित पहिली पहिली उत्कृष्ट स्थिति सानत्कुमारमाहेन्द्र आदि उपरिम देवों की जघन्य स्थिति कह दी गयी है, उसी प्रकार द्वितीया
आदि पृथिवियों में उपरिम नारकियोंको अव्यवहित पूर्ववतिनी उकृष्ट स्थितिका परली ओर निचले नारकीयोंकी जघन्यस्थिति हो जाना, यहां ही संज्ञासे निवेदन कर दिया गया है। सर्वत्र जघन्य स्थितिको पूर्व पटल की अपेक्षा एक समय अधिक समझना चाहिये ।
देवस्थितिप्रकरणेपि नारकस्थितिववनं संक्षेरार्थ ॥
देवोंको स्थितिके निरूपणका प्रकरण होने पर भी यहाँ नारकियोंकी जघन्यस्थितिका सूत्र कथन करना संक्षेपके लिये है। भावार्थ-जिससे कि दो बार अपरा इन तीन अक्षरोंको नहीं कहना पड़ा। " सूत्रं हि तन्नाम यतो न लघीयः" सूत्र तो वही है जिससे कि छटा या पतला दूसरा वाक्य नहीं बन सके । तीसरे अध्यायमें नारकियों को उ कृष्ट स्थितिको कहते समय यदि जघन्यस्थितिको कहा जाता तो वहा “ अपरा" शब्द का प्रयोग करना पडता “ परतः परत: पूर्वा पूर्वानन्तरा" का भी बोझ बढ जाता तथा पहिली पथिवीमे जघन्य स्थितिका निरूपण करते समय भी अपरा शब्द कहना पडता । अतः रंगबिरंगे धारीदार कपडे में जैसे एकरंगके कई सूत उसी स्थानपर पिर दिये जाते है अथवा व्याकरणमें गत्व विधायक या दीर्घविधायक कई सूत्र जैसे एक स्थलपर पढदिये जाते हैं, उसी प्रकार यहां भी आयुष्यविधायक कई सूत्र रचे गये हैं, जिससे ग्रन्थ अत्यल्प और अर्थ उतना ही प्राप्त हो जाता है।
शर्कराप्रभा आदिमें जघन्यस्थिति यदि कही जा चुकी है तब तो लगे हाय पहिली नरकभूमि में वर्तरहे जघन्यस्थितिका भी निरूपण कर दिया जाय, ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार अनि मसूत्रको कहते हैं।
दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥ ३६॥ पहिली नरकभूमिमें नारकीयोंकी दश हजार वर्ष जघन्य स्थिति है, जो कि तेरहाटल वाली घम्मा पृथिवीके पटलसीमंत में प्रवर्त रही है।
पृथिव्यां नारकागामवरास्थितिरिति घटनीयं ।